कयाधु पद्म २.५.२३ ( हिरण्यकशिपु- पत्नी व प्रह्लाद - माता कमला का वृत्तान्त ), भागवत ६.१८.१२ ( जम्भ - पुत्री, हिरण्यकशिपु- भार्या, संह्राद आदि ४ पुत्रों की माता ), ७.७.६ ( इन्द्र द्वारा कयाधु का बन्धन, नारद द्वारा कयाधु को बन्धन से मुक्त कराना व ज्ञानोपदेश देना )। kayaadhu
कर ब्रह्मवैवर्त्त ३.४.४५ ( कर सौन्दर्य के लिए लक्ष रक्तपद्म दान का निर्देश ), भविष्य ३.४.२५.३९( ब्रह्माण्ड कर से उत्पन्न शुक्र ग्रह द्वारा रुद्र सावर्णि मन्वन्तर की सृष्टि का उल्लेख ), मार्कण्डेय ( बलाश्व राजा के कर धमन से सैनिकों की उत्पत्ति ), विष्णुधर्मोत्तर १.४२.२१( कर में जया की स्थिति का उल्लेख ), स्कन्द ४.१.२१.३६ ( कर की निर्भयों में श्रेष्ठता का उल्लेख ), ५.१.६६.१० ( एक करतल आघात से हिरण्यकशिपु की मृत्यु होने का उल्लेख ), ५.२.८२.३९ ( भद्रकाली द्वारा दक्ष यज्ञ में दिनकर के कर काटने का उल्लेख ), ५.३.२४ ( विष्णु द्वारा दैत्य हनन के लिए कर मर्दन व चक्र धारण के कारण उत्पन्न स्वेद से करा नदी की उत्पत्ति ), हरिवंश २.८०.३५( सुन्दर हाथों हेतु द्वादशी व्रत का विधान ), लक्ष्मीनारायण १.३१९.१०७( जोष्ट्री - कन्या, श्रीहरि - पत्नी बनने पर करा की निरुक्ति ) ; द्र. श्रीकर, हस्त । kara
कर- ब्रह्माण्ड १.२.१६.३० ( करमोदा : ऋक्षवान् पर्वत से निःसृत नदियों में से एक ), २.३.७.३७ ( कररोमा : कद्रू के प्रधान नाग पुत्रों में से एक ), २.३.७.२३४ ( करव वाली के अधीनस्थ प्रधान वानरों में से एक ), भविष्य ४.६१.८( करच्छत्रा : देवों द्वारा करच्छत्रा पुरी में दुर्गा की आराधना ), वायु ४४.१२ ( करवाट : केतुमाल वर्ष का एक जनपद ), लक्ष्मीनारायण ४.३६+ ( करला ग्राम निवासी करालिका सती शूद्री का वृत्तान्त ), ४.५८.१ ( कराञ्चनी पुरी - निवासी मांसभक्षक यवसन्ध की कथा श्रवण से मुक्ति का वर्णन ) ।
करक नारद १.११३.४३ ( कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को करक चतुर्थी व्रत की विधि ), १.११७.७८ ( कार्तिक कृष्ण अष्टमी को करक अष्टमी व्रत विधि व संक्षिप्त माहात्म्य ), स्कन्द ५.३.२६.१४१ ( ललिता देवी हेतु करक दान मन्त्र का कथन ), ५.३.२६.१४७ ( मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को घृतयुक्त करक दान का उल्लेख ), ५.३.२६.१४७ ( कार्तिक शुक्ल तृतीया को रस पूर्ण करक दान का उल्लेख ), ५.३.१४८.१४ ( अङ्गारक चतुर्थी पर आग्नेयी आदि दिशाओं में स्थापित किए जाने वाले करकों के प्रकारों का कथन ), हरिवंश २.७९.४२ ( पुत्रेच्छा हेतु करक दान का निर्देश तथा दान विधि/ नारी द्वारा सापुत्र? करक दान के निर्देश )। karaka
करङ्क ब्रह्माण्ड ३.४.२३.९२ ( भण्डासुर - सेनानी, नकुलेश्वरी देवी द्वारा वध )
करञ्ज मत्स्य १९०.११( करञ्ज तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य : गोलोक की प्राप्ति ), योगवासिष्ठ ३.९९.१३ ( करञ्ज वन में भ्रमण करने वाले चित्त की प्रकृति का कथन ), ५.३५.५२ ( तृष्णा करञ्ज कुञ्जों का उल्लेख ), लिङ्ग १.५०.५ ( करञ्ज पर्वत पर नीललोहित शिव का वास ), वायु ३९.४२ ( वही), स्कन्द ५.३.४०.१० ( दनु व कश्यप - पुत्र, शिव आराधना से धार्मिक वंश होने के वर की प्राप्ति, करञ्ज तीर्थ का माहात्म्य ), ५.३.१०५ ( करञ्ज तीर्थ का माहात्म्य ), ५.३.२३१.१९ ( रेवा - सागर सङ्गम पर २ करञ्जेश्वर तीर्थों की स्थिति का उल्लेख ), हरिवंश २.८१.३ ( करञ्ज में दीप दान से पति - प्रिया होने का कथन ), लक्ष्मीनारायण १.५७४.४० ( करञ्ज द्वारा स्थापित करञ्जेश्वर तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), २.३२.३८( करञ्जनिलया नामक पादपों की माता के पुत्र प्रदात्री आदि होने का कथन ) । karanja
करटक ब्रह्माण्ड ३.४.२४.१० ( कीकसा के ७ पुत्रों में से एक, भण्डासुर - सेनानी ), ३.४.२४.५५ ( करटक का वेताल वाहन पर आरूढ होकर युद्ध करना, तिरस्करिणी देवी द्वारा करटक का वध ), कथासरित् १०.४.१९ ( करटक शृगाल : पिङ्गलक नामक सिंह का मन्त्री, मन्त्रियों के षडयन्त्र के फलस्वरूप सिंह द्वारा शरणागत वृषभ का वध ) ।
करण विष्णुधर्मोत्तर १.५६.१९ ( करणों में वध की श्रेष्ठता का उल्लेख ), महाभारत आदि ११४.४३ ( धृतराष्ट्र - पुत्र युयुत्सु का नाम ), वन १८१.१९(ज्ञान, बुद्धि व मन का आत्मा के करणों के रूप में कथन) ; द्र. मुहूर्त्त, वध । karana
करणक स्कन्द ४.२.७४.५७ ( करणक गण की काशी में वरणा तट पर स्थिति का उल्लेख ) ।
करण्ड कथासरित् ६.३.१० ( नलकूबर - पत्नी सोमप्रभा द्वारा करण्डिका / कण्डी में पिता द्वारा प्रदत्त पुत्तलिकाएं लाना ) ; द्र. योगकरण्डिका ।
करथ ब्रह्मवैवर्त्त १.१६.२१ ( करथ द्वारा आयुर्वेद तन्त्र की रचना का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण १.२०२.७ ( १६ चिकित्सकों में से एक ) ।
करन्धम भागवत ९.२.२५ ( खनिनेत्र - पुत्र, अवीक्षित - पिता, नाभाग वंश ), ९.२३.१७ ( त्रिभानु - पुत्र, मरुत - पिता, ययाति / तुर्वसु वंश ), मत्स्य ४८.२ ( त्रिसारि - पुत्र, मरुत्त - पिता, तुर्वसु वंश ), मार्कण्डेय १२१.२१ ( कर धमन से शत्रु नाशक सैनिकों की उत्पत्ति करने के कारण खनीनेत्र - पुत्र बलाश्व का नाम ), १२२.१ ( करन्धम द्वारा वीर्यचन्द्र राजा की पुत्री वीरा का स्वयंवर में वरण, वीरा से अवीक्षित पुत्र का जन्म, अवीक्षित के चरित्र का वर्णन ), १२८.३ ( करन्धम द्वारा पौत्र मरुत्त के मुख का दर्शन ), १२८.३० ( करन्धम द्वारा मरुत्त पौत्र को राज्य देकर तप हेतु पत्नी सहित वन गमन व शक्र लोक की प्राप्ति ), वायु ९९.२ ( त्रिसानु - पुत्र, मरुत्त - पिता, तुर्वसु वंश ), विष्णु ४.१.२९ ( अतिविभूति - पुत्र, अविक्षित - पिता, दिष्ट / वैवस्वत मनु वंश ), स्कन्द १.२.४०.१२९+ ( राजर्षि करन्धम द्वारा कालभीति / महाकालसे श्राद्ध महिमा, कलियुग में धर्म की स्थिति, सदाचार आदि धर्म स्वरूप का श्रवण ) । karandhama
करभ भविष्य ३.३.३१.७६ ( करभ नामक यक्ष की मूलवर्मा राजा की कन्या प्रभावती पर आसक्ति, नृहर - प्रभावती दम्पत्ति को पीडित करने पर कृष्णांश / उदयसिंह द्वारा नृहर दम्पत्ति को करभ के पाश से मुक्त करना ), स्कन्द ५.१.२८.७ ( शिव द्वारा धारित रूप, माहात्म्य ), ५.२.७३ ( करभेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य , वीरकेतु राजा द्वारा करभ / उष्ट्र का पीछा, करभ के पूर्वजन्म का वृत्तान्त, महाकालवन में करभेश्वर लिङ्ग से मुक्ति की कथा ), ५.३.४.४७ ( ऋक्ष पाद से प्रसूत करभा आदि नदियों का उल्लेख ), ५.३.६.४३ ( नर्मदा नदी के करभा उपनाम के कारण का कथन ), कथासरित् ६.१.१६३ ( करभक नामक ब्राह्मण के पुत्र का वृत्तान्त ), १२.३५.३३ ( करभग्रीव : विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में मातङ्गराज के निवासस्थान का नाम ), १४.४.२८ ( करभक ग्राम निवासी देवरक्षित ब्राह्मण की कपिला गौ द्वारा गोमुख की योगिनी से रक्षा का वृत्तान्त )। karabha
करभाजन भागवत ५.४.११ ( ऋषभ व जयन्ती - पुत्र ), ११.५ ( करभाजन द्वारा राजा निमि को भगवद् विग्रह का वर्णन ) ।
करर्मदक मत्स्य ९६.७ ( रजतमय १६ फलों में से एक ) ।
करम्भ देवीभागवत ५.२.१७ ( दनु - पुत्रों रम्भ व करम्भ द्वारा पुत्र प्राप्ति हेतु तप, ग्राह रूप धारी इन्द्र द्वारा करम्भ का वध, रम्भ से महिषासुर की उत्पत्ति का वृत्तान्त ), भागवत ३.२६.४५( , ९.२४.५ ( करम्भि : शकुनि - पुत्र, देवरात - पिता, विदर्भ / ज्यामघ वंश ), मत्स्य ४४.४२ ( शकुनि - पुत्र, देवरात - पिता, ज्यामघ / क्रोष्टा वंश ), ४४.८२ ( करम्भक : हृदीक के १० पुत्रों में से एक, बभ्रु / अन्धक वंश ), वराह २००.२७ ( करम्भबालुका : नरक की एक नदी, घोर स्वरूप का कथन ), वायु ४४.११ ( केतुमाल वर्ष का एक जनपद ), ५६.७९ ( करम्भबालुका : एक नरक का नाम ), ९५.४३ ( करम्भक : शकुनि - पुत्र, देवरात - पिता ), ४.१२.४१ ( करम्भि : शकुनि - पुत्र, देवरात - पिता, विदर्भ / ज्यामघ वंश ), कथासरित् १.२.४१ ( वेतस नगर में ब्राह्मण भ्राताओं देवस्वामी व करम्भक के पुत्रों इन्द्रदत्त व व्याडि का वृत्तान्त ) । karambha
करवाल शिव ४.२१.३०( भीम असुर द्वारा राजा पर करवाल द्वारा प्रहार का कथन ) ।
करवीर नारद १.११०.१५ ( ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को करवीर पूजा का विधान ), पद्म ६.१३३.१९ ( करवीर क्षेत्र में कुरूद्भव तीर्थ की स्थिति ), ब्रह्माण्ड २.३.७.३५ ( कद्रू के प्रधान नाग पुत्रों में से एक ), भविष्य १.१९३.१० ( करवीर दन्तकाष्ठ का महत्व : परिज्ञान का अचल होना ), ४.१० ( ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को करवीर व्रत विधि व माहात्म्य ), ४.८८.५ ( ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को करवीर लता की पूजा का माहात्म्य ), भागवत ५.१६.२७ ( मेरु के परित: स्थित ८ पर्वतों में से एक ), मत्स्य १३.४१ ( करवीर पीठ में सती का महालक्ष्मी नाम से वास ), २२.७६ ( करवीरपुर : श्राद्ध के लिए प्रशस्त स्थानों में से एक ), लिङ्ग १.८१.३६( करवीर पुष्प पर गणाध्यक्ष की स्थिति का उल्लेख ), वराह १२६.५३ ( करवीर तीर्थ में तर्पण करने का संक्षिप्त माहात्म्य ), स्कन्द २.२.४४.४ ( श्रावण आदि मासों में करवीर आदि पुष्पों द्वारा श्रीहरि की अर्चना का निर्देश ), २.४.२४२ ( सह्य अद्रि पर करवीरपुर -निवासी ब्राह्मण धर्मदत्त द्वारा कलहा राक्षसी के उद्धार की कथा ), ४.२.९७.११५ ( करवीरेश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य : रोग से मुक्ति ), ५.३.१९८.७८ ( करवीर तीर्थ में उमा की महालक्ष्मी नाम से प्रतिष्ठा का उल्लेख ), ७.१.१७.११७ ( करवीर पुष्प द्वारा पूजा की महिमा : सूर्य अनुचर बनना ), ७.१.२४.४५ ( करवीर पुष्प की पुष्पों में आपेक्षिक महिमा ), हरिवंश २.३८.२६ ( यदु - पुत्र पद्मवर्ण द्वारा सह्याद्रि पर करवीरपुर का निर्माण ), २.३९.५१ ( कृष्ण व बलराम द्वारा दुष्ट राजा वासुदेव / शृगाल द्वारा पालित करवीरपुर का त्याग ), २.४४ ( करवीर पुर के राजा शृगाल की कृष्ण से युद्ध में मृत्यु, शृगाल - पुत्र शक्रदेव का करवीर पुर का राजा बनना ), karaveera
कराल अग्नि ९६.११( कराली : ८ दिशाओं में स्थित क्षेत्रपालों में से षष्ठम क्षेत्रपाल ), ब्रह्म १.१३३+ ( करालजनक का वसिष्ठ से क्षर -अक्षर विषयक वार्तालाप ), ब्रह्माण्ड १.२.२५.६८ ( शिव का एक नाम ), ३.४.२०.८२ ( करालक : दण्डनाथा देवी के किरिचक्र रथ पर स्थित १० भैरवों में से एक ), ३.४.२१.७८, ३.४.२४.१०, ३.४.२४.५२ ( करालाक्ष : भण्डासुर व कीकसा के ७ पुत्रों में से एक, करालायु उपनाम, भण्डासुर का सेनानी, श्मशान मन्त्र की सिद्धि से प्रेत वाहन की प्राप्ति, तिरस्करिणी देवी द्वारा वध ), भविष्य १.३३.२५( सर्प के ४ विष दन्तों के देवताओं में कराली का उल्लेख, स्वरूप ), ३.३.१०.५ ( आह्लाद द्वारा मृगया हेतु महीपति से कराल नामक दिव्य अश्व की प्राप्ति ), मत्स्य १७९.१७ ( करालिनी :अन्धकासुरों के रक्त पान हेतु शिव द्वारा सृष्ट मातृकाओं में से एक ), शिव ५.८.२१ ( कराला : २८ नरक कोटियों में से एक ), स्कन्द ७.४.१७.३७ ( द्वारका के ईशान दिशा के द्वार पर स्थित द्वारपालों में से एक ), लक्ष्मीनारायण ४.३६+ ( करला ग्राम निवासिनी करालिका शूद्री सती द्वारा कृष्ण नाम दीक्षा ग्रहण व बद्रिकायन ऋषि को मूकता का शाप देने का वृत्तान्त ) । karaala
करी मत्स्य १९८.४ ( करीष : विश्वामित्र - वंशी एक ऋषि ), १९८.२० ( करीराशी : विश्वामित्र के वंश के एक ऋषि ), स्कन्द ५.१.२८.४४ ( करी कुण्ड में स्नान का संक्षिप्त माहात्म्य : विष्णु लोक की प्राप्ति ), योगवासिष्ठ ६.१.१२६.७८( इच्छा रूपी करिणी का वर्णन ), लक्ष्मीनारायण ४.१०१.१०८ ( करिणी : कृष्ण - पत्नी, गजानन व स्वर्णदन्ता युगल की माता ), कथासरित् ६.१.१६९ ( उन्मत्त करी / हस्ती का वृत्तान्त ), १२.३.४० ( करिमण्डित वन के निवासी पांच पुरुषों द्वारा मृगाङ्कदत्त व श्रुतधि का स्वागत ) । karee
करीर पद्म १.२८.३० ( वृक्ष , पारदारिक ), मत्स्य ९६.७ ( रजतमय १६ फलों में से एक ) ।
करीष वराह २००.४५ ( करीष गर्त नरक की यातनाओं का कथन ), स्कन्द ५.२.५२.३३ ( ओंकारेश्वर दर्शन से करीष साधन से अधिक पुण्य प्राप्त होने का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण १.३११.३६ ( करीषिणी : समित्पीयूष की २७ पत्नियों में से एक, कृष्ण को कज्जल आंजन अर्पित करना ) ।
करुण पद्म ५.१०५.१५३ ( धनञ्जय - पुत्र व शुचिस्मिता - पति करुण का द्विज शाप से मक्षिका बनना, मक्षिका की मृत्यु पर अरुन्धती द्वारा भस्म के प्रभाव से पुन: जीवित करना, पुन: मृत्यु होने पर दधीचि द्वारा भस्म से संजीवन ), मत्स्य १९३.४५ ( भृगु द्वारा करुणाभ्युदय स्तोत्र द्वारा शिव की स्तुति ), स्कन्द ४.२.९४.२० ( करुणेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य : काशी से निर्गम के भय से मुक्ति ), ५.३.१८१.५५ ( भृगु - प्रोक्त करुणा अभ्युदय स्तोत्र का वर्णन ), योगवासिष्ठ १.१.९ ( अग्निवेश्य द्वारा पुत्र कारुण्य को कर्म से मोक्ष प्राप्ति के उपाय का कथन ) । karuna
करूष गर्ग ७.१०.३२ ( करूष देश के अधिपति वृद्धशर्मा की प्रद्युम्न सेना से पराजय ), देवीभागवत १०.१३.२ ( वैवस्वत मनु के ६ पुत्रों में से एक, भ्रामरी देवी की आराधना से दक्ष सावर्णि मनु बनना ), ब्रह्माण्ड १.२.१६.६३ ( भारत में विन्ध्य पर्वत के देशों में से एक ), २.३.६१.२ ( मनु - पुत्र करूष के पुत्रों की कारूष संज्ञा ), २.३.७१.१५६ ( वृद्धशर्मा व श्रुतदेवा से करूष -अधिपति दन्तवक्र का जन्म ), भागवत ८.१३.३, ९.१.१२ ( वैवस्वत मनु के १० पुत्रों में से एक ), ९.२.१६ ( मनु - पुत्र करूष के कारूष संज्ञक पुत्रों के उत्तरापथ के रक्षक होने का उल्लेख ), १०.६६.१ ( करूष देश के अधिपति पौण्ड्रक द्वारा स्वयं को वासुदेव घोषित करना, कृष्ण द्वारा पौण्ड्रक का वध ), १०.७८.४ ( कृष्ण द्वारा करूष - नरेश दन्तवक्त्र का वध ), मत्स्य ११.४१ ( वैवस्वत मनु के १० पुत्रों में से एक ), १२.२४ ( मनु - पुत्र करूष के पुत्रों की कारूष संज्ञा ), ४६.२५ ( कृष्ण द्वारा सन्तान रहित करूष को स्वपुत्र सुचन्द्र प्रदान करने का उल्लेख ), ११४.५२ ( भारत में विन्ध्य पर्वत के देशों में से एक ), वायु ४५.१३२ ( भारत में विन्ध्य पर्वत के देशों में से एक ), ६४.३०, ८५.४ ( वैवस्वत मनु के ९ पुत्रों में से एक ), ६९.२३९ ( गङ्गोद्भेद से लेकर विन्ध्य में करूष तक के वन पर सुप्रतीक दिग्गज के अधिकार का उल्लेख ) । karoosha/karuusha/ karusha
करोड स्कन्द ५.३.६२ ( करोडीश्वर तीर्थ का माहात्म्य : देवों द्वारा कोटि संख्या वाले दानवों का वध ) ; द्र. कोटि
कर्क ब्रह्म २.६०.३ ( कर्कि : आपस्तम्ब व अक्षसूत्रा - पुत्र ), स्कन्द २.२.३७.१ ( कर्क सङ्क्रान्ति पर करणीय कृत्यों का वर्णन ; पुरुषोत्तम की आराधना से राजा श्वेत की मुक्ति ), ५.१.६९.२ ( चातुर्मास में कर्कराज तीर्थ में स्नान का माहात्म्य ), वायु १०६.३७ ( गया में ब्रह्मा के यज्ञ में ऋत्विजों में से एक ), लक्ष्मीनारायण २.१२२.२( कर्कायन ऋषि का जल में कृकलास स्वरूप में वास करने का उल्लेख ); द्र. कल्कि, दक्षिणायन, राशि karka
कर्कट अग्नि ३४१.१७ ( संयुत कर के १३ प्रकारों में से एक ), पद्म ६.२२२.२७ ( मर्यादा पर्वत - वासी कर्कट संज्ञक भिल्ल द्वारा जरा नामक दुष्ट पत्नी के वध का वृत्तान्त ), ब्रह्माण्ड ३.४.२१.७८ ( कर्कटक : भण्डासुर का एक पुत्र व सेनानी ), भविष्य ३.४.१२.९९ ( गज के शीर्ष का गणेश पर आरोपण हो जाने पर ब्रह्मा द्वारा गज को कर्कट के शिर से युक्त करना ), शिव ४.२०.१३ ( पुष्कसी - पति, कर्कटी - पिता, सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा कर्कट व पुष्कसी को भस्म करने का उल्लेख ), स्कन्द ५.२.२२.१ ( कर्कटेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य : कर्कट की लिङ्ग के सम्मुख मृत्यु होने पर राजा धर्ममूर्ति बनने का वृत्तान्त ), ५.३.१३७ ( कर्कटेश्वर तीर्थ का माहात्म्य : वालखिल्यों व नारायणी देवी के तप का स्थान ), भरतनाट्य ९.१३०(हस्त की कर्कट मुद्रा का लक्षण) । karkata Comments on Brahmin- karkata story
कर्कटी वामन ५७.१०१ ( कर्कटिका : श्वेत तीर्थ द्वारा कार्तिकेय को प्रदत्त गण का नाम ), शिव ४.२०.७ ( कर्कट व पुष्कसी - पुत्री, विराध राक्षस की भार्या, कुम्भकर्ण से भीम नामक पुत्र की उत्पत्ति, भीम का वृत्तान्त ), योगवासिष्ठ ३.६८++ ( कर्कटी राक्षसी द्वारा प्राणियों के भक्षण हेतु तप करके अनायसी व आयसी शरीर प्राप्त करना, अयस् / लौह निर्मित सूची शरीर धारण करने पर भोगों से अतृप्त रहना, बिस तन्तु में प्रविष्ट विद्युत रेखा सदृश कुण्डलिनी से उपमा ), ३.७५+ ( सूची द्वारा ब्रह्मा के वरदान से सूक्ष्म से स्थूल शरीर प्राप्त करना, राजा विक्रम व मन्त्री से चिदणु सम्बन्धी ७२ प्रश्न पूछना ), ३.८३.६ ( विक्रम राजा द्वारा कर्कटी की राज्य में कन्दरा देवी नाम से प्रतिष्ठा करना ), कथासरित् १८.४.३२ ( कर्कटिका : विक्रमादित्य के राजसेवक देवसेन का कर्कटिका भक्षण से अजगर बनना, भिल्ल - सेनापति के पुत्र द्वारा चिकित्सा से अजगर का पुन: मनुष्य बनना ) । karkati
कर्कश भविष्य ४.९४.१७ ( कर्कशा :अनन्त चर्तुदशी व्रत कथा के अन्तर्गत सुमन्तु द्विज की पत्नी शीला की सौतेली माता ; द्र. - शब्दकल्पद्रुम के अन्तर्गत अनन्त चर्तुदशी व्रत ), विष्णुधर्मोत्तर १.२४८.२९ ( कर्कश : गरुड के पुत्रों में से एक ) । karkasha
कर्केतन गरुड १.७५ ( कर्केतन मणि की बल असुर के नखों से उत्पत्ति व महिमा का कथन ) ।
कर्कोटक गरुड १.१९७.१५ ( कर्कोटक सर्प की वरुण मण्डल में स्थिति ), पद्म ६.४७.१२ ( नागराज पुण्डरीक की सभा में ललिता अप्सरा व ललित गन्धर्व द्वारा नृत्य में त्रुटि करने पर कर्कोटक / कर्कट द्वारा राजा को सूचित करना ), ६.१३३.१२ ( मुकुट क्षेत्र में कर्कोटक तीर्थ की स्थिति का उल्लेख ), ब्रह्माण्ड १.२.२३.१७ ( कर्कोटक नाग की हेमन्त ऋतु में सूर्य रथ व्यूह में स्थिति ), २.३.६९.२६ ( कार्त्तवीर्य अर्जुन द्वारा कर्कोटक नाग के पुत्रों को जीतकर माहिष्मती पुरी में प्रवेश करना ), भविष्य १.३४.२२( कर्कोटक नाग का बुध ग्रह से तादात्म्य ), ४.५८.४३ ( वही), भागवत १२.११.४२ ( कर्कोटक नाग की पुष्य मास में सूर्य रथ व्यूह में स्थिति ), मत्स्य १२६.१८ ( कर्कोटक नाग की हेमन्त ऋतु में सूर्य रथ व्यूह में स्थिति ), १३३.३३ ( त्रिपुर विध्वंस हेतु निर्मित शिव के रथ में कर्कोटक नाग द्वारा अश्वों के वाल बन्धन का कार्य ), १६३.५६ ( कर्कोटक व धनञ्जय नागों का हिरण्यकशिपु के क्रोध से कम्पित होने का उल्लेख ), १९१.३६ ( नर्मदा तटवर्ती कर्कोटकेश्वर तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), वामन ५५.७४ ( चण्डमारी देवी द्वारा कर्कोटक की गरुड से रक्षा व कर्कोटक नागपाश की सहायता से चण्ड व मुण्ड दैत्यों का बन्धन करना ), वायु ५२.१७ ( कर्कोटक नाग की हेमन्त ऋतु में सूर्य रथ व्यूह में स्थिति ), ६९.७० ( कर्कोटक व धनञ्जय : कण्डू / कद्रू के प्रधान नाग पुत्रों में से दो ), ९४.२६/ २.३२.२६(कार्तवीर्य द्वारा कर्कोटक सभा को जीतकर माहिष्मती पुरी बसाने का उल्लेख), स्कन्द १.१.२२.४(शिव द्वारा कर्कोटक व पुलह नागों को कङ्कण रूप में धारण करने का उल्लेख), १.२.१३.१९२ ( शतरुद्रिय प्रसंग में कर्कोटक नाग द्वारा हालाहल लिङ्ग की एकाक्ष नाम से आराधना ), १.२.६३.६१ ( कर्कोटक द्वारा भूमि पर स्थित शूर्पारक क्षेत्र में गमन के लिए पाताल में स्थित रत्न लिङ्ग के दक्षिण में मार्ग का निर्माण ), ३.१.३८.१७ ( कद्रू- विनता - उच्चैःश्रवा अश्व की कथा में कर्कोटक द्वारा माता कद्रू की आज्ञा का पालन करते हुए अश्व की पुच्छ को काली बनाना ), ४.२.६६.२५ ( कर्कोटक लिङ्ग व कर्कोटक वापी का संक्षिप्त माहात्म्य : विष भय से मुक्ति ), ४.२.९७.११७ ( कर्कोटक वापी का संक्षिप्त माहात्म्य : नागों के आधिपत्य की प्राप्ति ), ५.२.१०.१३ ( कद्रू के शाप से नागों की रक्षार्थ कर्कोटक द्वारा शिव की आराधना, कर्कोटकेश्वर शिव का माहात्म्य, कर्कोटक का एलापत्र नाग से तादात्म्य ), ७.१.३४६.१ ( अग्नि कोण में स्थित कर्कोटक रवि का संक्षिप्त माहात्म्य : देवों की प्रीति प्राप्त होना ), कथासरित् ३.४.२३४ ( पूर्व समुद्र के पार कर्कोटक पुर की स्थिति का उल्लेख ), ९.६.३४९ ( नल - दमयन्ती कथा में नल द्वारा नाग की दावानल से रक्षा करना, कर्कोटक नाग द्वारा नल का दंशन करके कृष्ण वर्ण बनाना ) । karkotaka
कर्ण गणेश १.५३.२ ( कर्ण नगर में राजा चन्द्राङ्गद की कथा ), गरुड २.३०.५३/२.४०.५३( मृतक के कर्णों में ताडपत्र देने का उल्लेख ), गर्ग १.५.२८ (सविता का अंश ), ७.२०.३० ( प्रद्युम्न - सेनानी मधु से युद्ध ), १०.४९.१७ ( अक्रूर से युद्ध ), १०.५०.३४ ( कर्ण द्वारा कृष्ण की स्तुति ), देवीभागवत २.६.१२ ( कुन्ती से कर्ण के जन्म होने का वृत्तान्त ), पद्म १.१४.५६ ( पञ्चम शिर छेदन पर ब्रह्मा के स्वेद से उत्पन्न स्वेद नर द्वारा द्वापर में कर्ण व त्रेतायुग में सुग्रीव रूप में अवतार लेने का वृत्तान्त ), ब्रह्मवैवर्त्त ३.४.३९( कर्ण सौन्दर्य हेतु कर्णभूषण दान का निर्देश ), ब्रह्माण्ड २.३.६.३३ ( बलि के पुत्र चक्रवर्मा के पूर्व जन्म में कर्ण होने का उल्लेख ), भविष्य ३.३.१७.४ ( कलियुग में कर्ण का पृथ्वीराज - पुत्र तारक के रूप में जन्म ), भागवत ९.२३.१३ ( अतिरथ द्वारा पृथा के त्यक्त पुत्र की गङ्गा से प्राप्ति, अङ्ग / बलि वंश ), १०.७५.५ ( युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कर्ण द्वारा दान देने का कार्य करना ), मत्स्य ४८.५ ( आण्डीर के पांच पुत्रों पाण्ड्य, चोल आदि में से एक, तुर्वसु / ययाति वंश ), ४८.१०२ ( अङ्ग - पुत्र, वृषसेन - पिता, अङ्ग / बलि वंश ), वामन २.५५ ( पञ्चम शिर छेदन पर ब्रह्मा के स्वेद से उत्पन्न स्वेद नर का द्वापर में कर्ण व त्रेतायुग में वाली रूप में जन्म होने का वृत्तान्त ), वायु ६८.३२ ( बलि के पुत्र चक्रवर्मा के पूर्व जन्म में कर्ण होने का उल्लेख ), ९९.११२ ( अङ्ग - पुत्र, वृषसेन - पिता, अङ्ग / बलि वंश ), विष्णु ४.१४.३६ ( पृथा का सूर्य अंश से उत्पन्न पुत्र ), ४.१८.२८ ( अतिरथ द्वारा पृथा के त्यक्त पुत्र की गङ्गा से प्राप्ति, अङ्ग / बलि वंश ), विष्णुधर्मोत्तर २.५२.७६( बालक के कर्णवेध संस्कार की विधि ), स्कन्द ५.१.३.४९ ( पञ्चम शिर छेदन पर ब्रह्मा के स्वेद से उत्पन्न स्वेद नर का द्वापर में कर्ण व त्रेतायुग में सुग्रीव रूप में अवतार लेने का वृत्तान्त ), ७.१.१०.११( रुद्रकर्ण, गोकर्ण आदि तीर्थों का वर्गीकरण – आकाश), ७.१.१३९.२० ( मरुस्थल में आदित्य का नाम ), ७.१.१३९.२३ ( कर्णादित्य : चम्पा तीर्थ में आदित्य का नाम ), हरिवंश १.५२.२२( मधु - कैटभ की विष्णु के कर्ण मल से उत्पत्ति का उल्लेख ), २.८०.१४ ( सुन्दर कर्ण प्राप्ति के उपाय का कथन ), महाभारत उद्योग १६०.१२२ ( सैन्य समुद्र में कर्ण व शल्य की झषावर्त्त से उपमा ), शान्ति ३४७.५०(हयग्रीव के कर्णों के रूप में आकाश – पाताल का उल्लेख), आश्वमेधिक दाक्षिणात्य पृष्ठ ६३४८( कपिला गौ के कर्णों में अश्विनौ की स्थिति का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण १.१५५.५० ( अलक्ष्मी के कर्ण की कृकलास से उपमा ) ; द्र. कुम्भकर्ण , गोकर्ण , घूककर्ण, जातुकर्ण, छिन्नकर्ण, दीपकर्ण, दुष्कर्ण, नीलकर्ण, प्राकारकर्ण, भद्रकर्ण, भासकर्ण, मणिकर्ण, माण्डकर्णि, वसुकर्ण, शङ्कुकर्ण, शशकर्ण, श्वेतकर्ण, सत्यकर्ण, सुकर्ण, स्थूणाकर्ण । karna
कर्ण-( १ ) कुन्ती के गर्भ और सूर्य के अंश से कवच-कुण्डल धारी महाबली कर्ण की उत्पति (आदि० ६३ ॥ ९८(६४.१४०); आदि० ११० ॥ १८(१२०.३०) ) । पहले इसका वसुषेण नाम था; परंतु जब इसने अपने कवच-कुण्डलों को शरीर से उधेड़कर इन्द्र को दे दिया, तबसे उसका नाम वैकर्तन हो गया ( आदि० ६७ ॥ १४४-१४७ ) । कुन्ती के द्वारा इसका जल में परित्याग ( आदि० ६७ ॥ १३९; आदि० ११० ॥ २२(१२०.३४) ) । इसे ब्राह्मण के लिये कुछ भी अदेय नहीं था ( आदि० ६७ ॥ १४३ ) । ब्राह्मणरूप में याचक होकर आये हुए इन्द्र को इसके द्वारा कवचकुण्डल का दान एवं प्रसन्न हुए इन्द्र से इसको शक्ति नामक अमोघ अस्त्र की प्राप्ति ( आदि०६७॥१४४-१४६; आदि० ११० ॥ २८-२९ ) । यह सूर्यदेव का सर्वोत्तम अंश था ( आदि० ६७ ॥ १५० ) । गङ्गा के प्रवाह में बहते हुए इस बालक कर्ण का अधिरथ के हाथ में पहुँचना ( आदि० १०० ॥ २३ ) । अधिरथ तथा उसकी पत्नी राधा का इसको अपना पुत्र बना लेना ( आदि० ११० ॥ २३ ) । इसका वसुषेण नाम होने का कारण ( आदि० ११० ॥ २४ ) । इसकी सूर्य-भक्ति ( आदि० ११० ॥ । २५ ) । इसकी ब्राह्मण-भक्ति (आदि० ११० ॥ २६)। इसका कर्ण और वैकर्तन नाम होनेका कारण ( आदि० ११० ॥ ३१ ) । द्रोणाचार्य के समीप अध्ययन के लिये इसका आगमन ( आदि० १३१ ॥ ११(१४२.२०) ) । अध्ययनावस्था में अर्जुन से इसकी स्पर्धा ( आदि० १३१ ॥ १२(१४२.२१) ) । रङ्गभूमि में इसकी अर्जुन से स्पर्धा तथा अस्त्र-कुशलता ( आदि० १३५ । ९-१२ ) । रङ्गभूमि में दुर्योधन द्वारा इसका सम्मान ( आदि० १३५ ॥ १३-१४ ) । अर्जुन द्वारा इसे रङ्गभूमि में फटकार (आदि० १३५ ॥ १८ ) । अर्जुन से लड़ने के लिये इसका रङ्गभूमि में उद्यत होना ( आदि० १३५ ॥ २० ) । रङ्गभूमि में कृपाचार्य का इससे परिचय पूछना और इसका लज्जित होना ( आदि० १३५ ॥ ३४ ) । दुर्योधन द्वारा इसका अङ्गदेश के राजपद पर अभिषेक (आदि० १३५ ॥ ३८) । इसके द्वारा दुर्योधन को अटल मित्रता का वरदान (आदि० १३५ ॥ ४१ ) । इसका रङ्गभूमि में अपने पिता अधिरथ का अभिवादन ( आदि० १३६ ॥ २ ) । भीमसेन द्वारा इसका तिरस्कार ( आदि० १३६ ॥ ६ ) । दुपद से पराजित होकर इसका पलायन ( आदि० १३७ ॥ २४ के बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । द्रौपदी के स्वयंवर में इसका आगमन ( आदि० १८५ ॥ ४ ) । स्वयंवर में लक्ष्यवेध के लिये उद्यत हुए कर्ण को देखकर सूतपुत्र होने के कारण इसका वरण न करने के सम्बन्ध में द्रौपदी का वचन ( आदि० १८६ ॥ २३) । द्रौपदी के स्वयंवर में अर्जुन द्वारा इसकी पराजय ( आदि० १८९ ॥ २२ ) । पराक्रमपूर्वक दुपद को पराजित कर पाण्डवों को कैद करने के लिये इसका दुर्योधन को परामर्श ( आदि० २०१ ॥ १-२१ ) । इसको द्रोण की फटकार ( आदि० २०३ ॥ २६ ) । राजसूय-दिग्विजय के समय भीमसेन द्वारा इसकी पराजय ( सभा ० ३० ॥ २० ) । युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में रथिश्रेष्ठ कर्ण का आगमन ( सभा० ३४ । ७ ) । यह अङ्ग और वङ्ग देश का राजा था और इसने जरासंध को परास्त किया था (सभा० ४४ ॥ ९-११) । द्यूतके लिये आये हुए राजा युधिष्ठिर कर्ण से भी मिले थे ( सभा ० ५८ । २३(८३.४८))। द्यूतसभा में कर्ण भी उपस्थित था और द्रौपदी को दावपर लगाने से बहुत प्रसन्न हुआ था ( सभा० ६५ ॥ ४४ ) । इसके द्वारा विकर्ण को फटकारते हुए द्रौपदी के हारे जाने की घोषणा और द्रौपदी तथा पाण्डवों के वस्त्र उतार लेने के लिये दु:शासन को आदेश ( सभा० ६८ ॥ २७-३८ ) । इसका द्रौपदी को दूसरा पति चुन लेने के लिये कहना और उसे दासी बताना ( सभा० ७१ ॥ १-४(९२.१९) ) । वन में चलकर पाण्डवों का वध करने के लिये दुर्योधन को इसकी सलाह ( वन ० ७ ॥ १६-२० ) । द्वैतवन में पाण्डवों के पास चलने के लिये इसका दुर्योधन को उभाड़ना ( वन० २३७ अध्याय ) । घोषयात्रा का प्रस्ताव बताना ( वन० २३८ ॥ १९-२०) ॥ धृतराष्ट्र के आगे घोषयात्रा का प्रस्ताव रखना ( वन० २३९ ॥ ३-५) । द्वैतवन में गन्धर्वों द्वारा इसकी पराजय ( वन० २४१ ॥ ३२ ) । मार्ग में इसके द्वारा दुर्योधन का अभिनन्दन ( वन० २४७ ॥ १०-१५) । दुर्योधन को अनशन न करने के लिये इसका समझाना (वन० २५० अध्याय ) । भीष्म द्वारा इसकी निन्दा, इसके क्षोभपूर्ण वचन और इसका दिग्विजय के लिये प्रस्थान (वन० २५३ अध्याय) । इसके द्वारा समूची पृथ्वी पर दिग्विजय और हस्तिनापुर में इसका स्वागत ( वन० २५४ अध्याय ) । कर्ण का दुर्योधन को यज्ञके लिये सलाह देना ( वन० २५५ अध्याय ) । कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा ( वन० २५७ ॥ १६-१७ ) । सूर्य के समझाने पर भी इसका कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय रखना ( वन ० ३०० ॥ २७-३९) । इन्द्र से शक्ति लेकर ही उन्हें कवच-कुण्डल देने का निश्चय ( वन० ३०२ ॥ १७) । कर्ण का कुन्ती के गर्भ से जन्म, कुन्ती का उसे पिटारी में रखकर अश्व नदी में बहा देना तथा अमृत से प्रकट हुए कवच-कुण्डल धारण करने के कारण इसका नदी में जीवित रह सकना ( वन ० ३०८ ॥ ४-७-२७ ) । पिटारी में बंद हुए कर्ण का अधिरथ और राधा के हाथ में आना ( वन० ३०९ । ५-६) । राधा द्वारा कर्ण का विधिपूर्वक पालन ( वन० ३०९ ॥ ११-१२ ) । इसका वसुषेण और वृष नाम पड़ने का कारण ( वन० ३०९ ॥ १३-१४ ) । हस्तिनापुर में इसकी शिक्षा और दुर्योधन से मित्रता ( वन० ३०९ ॥ १७-१८ ) । इन्द्र से उनकी शक्ति माँगना ( वन ० ३१० ॥ २१ ) । इन्द्र को इसके द्वारा कवच-कुण्डल दान (वन ० ३१० ॥ ३८ ) । पाण्डवों का पता लगाने के लिये इसकी पुन: गुप्तचर भेजने की सलाह ( विराट० २६ ॥ ८-१२ ) । द्रोणाचार्य की बातों पर आक्षेप करते हुए अर्जुन से युद्ध करने का ही इसका निश्चय ( विराट० ४७ ॥ २१-३४ ) । इसकी आत्मप्रशंसापूर्ण अहङ्कारोक्ति (विराट० ४८ अध्याय) । अर्जुन पर इसका आक्रमण ( विराट० ५४ ॥ १९ ) । अर्जुन से पराजित होकर युद्ध के मुहाने से भागना ( विराट० ५४ ॥ ३६/७७ ) । अर्जुन के साथ पुन: युद्ध और पराजित होकर भागना ( विराट० ६० ॥ २७ ) । कर्ण के कपड़ों का उत्तर द्वारा उतारा जाना ( विराट० ६५ ॥ १५ ) । द्रुपद के पुरोहित के कथन का समर्थन करने वाले भीष्म के वाक्यों पर इसका आक्षेप करना ( उद्योग० २१ ॥ ९-१५ ) । इसकी आत्मप्रशंसा ( उद्योग० ४९ ॥ २९-३२; उद्योग० ६२ ॥ २-६ ) । भीष्मजी के आक्षेप करने पर इसका अस्त्र त्यागकर सभा से प्रस्थान ( उद्योग० ६२ ॥ १३ ) । दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चय बताते हुए श्रीकृष्ण से रणयज्ञ के रूपक का वर्णन करना (उद्योग० १४१.२९ अध्याय ) । इसके द्वारा श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर की विजय और दुर्योधन की पराजय के लक्षणों का वर्णन ( उद्योग० १४३ ॥ २-४५ ) । कुन्ती को उत्तर देते हुए उनके चार पुत्रों को न मारने की प्रतिज्ञा ( उद्योग० १४६ ॥ ४-२३ ) । भीष्मजी के जीते-जी युद्ध न करने की प्रतिज्ञा ( उद्योग ० १५६ ॥ २५ ) । भीष्म की कटु आलोचना ( उद्योग० १६८ ॥ ११-२९ ) । पाँच दिन में ही पाण्डवसेना को नष्ट करने की अपनी शक्ति का कथन ( उद्योग० १९३ ॥ २० ) । श्रीकृष्ण के समझाने पर दुर्योधन का ही पक्ष ग्रहण करने का निश्चय ( भीष्म० ४३ ॥ ९२ ) । भीष्म से शस्त्र डलवा देने के लिये दुर्योधन को सलाह देना ( भीष्म० ९७ ॥ ७-१३ ) । बाणशय्या पर पड़े हुए भीष्म के पास जाकर इसका उन्हें प्रणाम करना ( भीष्म० १२२ ॥ ४-५) | भीष्म के समझाने पर क्षमा-प्रार्थना करते हुए इसका युद्ध का ही निश्चय बताना ( भीष्म० १२२ ॥ २३-३३ ) । कौरवों द्वारा इसका स्मरण ( द्रोण० १ ॥ ३३-४७ ) । भीष्म के लिये शोक प्रकट करते हुए इसका रण के लिये प्रस्थान (द्रोण० २ अध्याय)। भीष्म की प्रशंसा करते हुए युद्ध के लिये उनसे आज्ञा माँगना ( द्रोण० ३ अध्याय ) । भीष्म की आज्ञा पाकर कौरवों की सेना में इसका जाना (द्रोण० ४ ॥ १५) । दुर्योधन के पूछने पर इसका सेनापति के लिये द्रोणाचार्य का नाम बताना ( द्रोण० ५ ॥ १३-२१ ) । दुर्योधन से भीमसेन के स्वभाव का वर्णन करते हुए द्रोणाचार्य की रक्षा के लिये कहना ( द्रोण० २२ ॥ १८-२८ ) । केकय राजकुमारॉ के साथ युद्ध ( द्रोण० २५ ॥ ४२-४४ ) || अर्जुन; भीमसेन; धृष्टद्युम्न और सात्यकि के साथ युद्ध ( द्रोण० ३२ ॥ ५२-७० ) । इसका अभिमन्यु से पराजित होना ( द्रोण० ४० ॥ १७-३६ ) । इसका द्रोणाचार्य से अभिमन्यु के वध का उपाय पूछना (द्रोण० ४८ ॥ १८ ) । इसके द्वारा अभिमन्यु के धनुष और ढाल का काटा जाना ( द्रोण० ४८ ॥ ३२-३९ ) || इसके ध्वज का वर्णन ( द्रोण० १०५ ॥ १२-१४ ) । भीमसेन के साथ युद्ध में इसका पराजित होना ( द्रोण ० १२९ ॥ ३३ ) । भीमसेन के साथ इसका युद्ध और पराजित होना ( द्रोण० १३१ से १३८ अध्याय तक ) । भीमसेन से बचने के लिये इसका रथ में दुबक जाना ( द्रोण० १३९ ॥ ७६ ) । भीमसेन को मूर्च्छित करके इसका धनुष की नोक से उन्हें दबाना ( द्रोण० १३९ ॥ ९१-९२ ) । भीमसेन को कटुवचन सुनाना ( द्रोण० १३९ ॥ ९५-१०९) । अर्जुन के बाणों से आहत होकर इसका दूर हट जाना ( द्रोण० १३९ ॥ ११४ ) । अर्जुन के द्वारा युद्ध में परास्त होना ( द्रोण० १४५ ॥ ८३-८४ ) । दुर्योधन के प्रोत्साहन देने पर उसे उत्तर देना ( द्रोण० १४५ ॥ २५-३३ ) । सात्यकि के साथ युद्ध में इसकी पराजय ( द्रोण० १४७ ॥ ६४-६५(१४५.४८) ) । दुर्योधन द्वारा द्रोणाचार्य पर किये गये दोषारोपण का निराकरण ( द्रोण० १५२ ॥ १५-२२) । दुर्योधन से दैव की प्रधानता का वर्णन ( द्रोण० १५२ ।। २३-३४ ) ।। दुर्योधन को आश्वासन ( द्रोण० १५८ ॥ ५-११ ) । इसके द्वारा कृपाचार्य का अपमान ( द्रोण० १५८ ॥ २५-३२; द्रोण० १५८ ।। ४९-७० ) । अर्जुन के साथ युद्ध में इसका पराजित होना (द्रोण० १५९ ॥ ६२-६४ ) । सहदेव को युद्ध में परास्त करके उनके शरीर में धनुष की नोक चुभोकर उन्हें कटु वचन सुनाना ( द्रोण० १६७ ॥ २-१८) । सात्यकि के साथ इसका युद्ध ( द्रोण० १७० ॥ ३०-४३ ) । दुर्योधन को इसकी सलाह ( द्रोण० १७० ॥ ४६-६० )। इसके द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय (द्रोण० १७३ ॥ ७) । घटोत्कच के साथ इसका घोर युद्ध (द्रोण० १७५ अध्याय) । इसके द्वारा इन्द्र की दी हुई शक्ति से घटोत्कच का वध ( द्रोण० १७९ ॥ ५४-५८) । भीमसेनके साथ युद्ध और उन्हें परास्त करना ( द्रोण० १८८ ॥ १०-२२) । भीमसेन के साथ युद्ध (द्रोण० १८९ । ५०-५५) । द्रोणाचार्य के मारे जाने पर युद्धस्थल से भागना ( द्रोण० १९३ ॥ १० ) || सात्यकि द्वारा इसकी पराजय ( द्रोण० २०० ॥ ५३ ) || संजय द्वारा इसके सेनापतित्व तथा मृत्यु का वर्णन ( कर्ण० ३ ॥ १७-२१ ) । अर्जुन द्वारा इसके पुत्र वृषसेन के वध की चर्चा ( कर्ण० ५ ॥ २३-२४ ) । सेनापति के लिये प्रस्ताव करने पर दुर्योधन को आश्वासन ( कर्ण० १० ॥ ४०-४ १ ) । सेनापति-पद पर अभिषेक ( कर्ण० १० ॥ ४३ ) । इसका कौरव-सेना का मकरव्यूह बनाकर युद्ध के लिये प्रस्थान ( कर्ण० ११ ॥ १४ ) । इसके द्वारा पाण्डवसेना का संहार ( कर्ण० २१ ॥ १८-२४ ) || भागते हुए नकुल के गले में धनुष फँसाकर उन्हें पकड़ना और जीवित छोड़ देना (कर्ण० २४ ॥ ४५-५१ ) । सात्यकि के साथ इसका युद्ध ( कर्ण० ३० अध्याय ) || दुर्योधन से अपनी युद्धसम्बन्धी व्यवस्था के लिये कहना ( कर्ण० ३१ । ३५-६९ ) । शल्य को सारथि बनाकर युद्ध के लिये प्रस्थान ( कर्ण० ३६ ॥ २४-२५ ) । इसकी आत्मप्रशंसा ( कर्ण० ३७ ।। १३-३१ ) । अर्जुन का पता बताने वाले को पुरस्कार देने की घोषणा (कर्ण० ३८ अध्याय ) । शल्य को फटकारते हुए मद्रनिवासियों की निन्दा करना और उन्हें मारने की धमकी देना (कर्ण० ४० अध्याय ) ।शल्य को फटकारते हुए अपने को परशुरामजी तथा एक ब्राह्मण द्वारा प्राप्त शापों की बात बताना ( कर्ण० ४२ अध्याय ) । आत्मप्रशंसापूर्वक शल्य को फटकारना ( कर्ण० ४३ अध्याय ) । इसके द्वारा मद्र आदि बाहीक देशवासियों की निन्दा करना (कर्ण० ४४ से ४५ अध्याय तक)। इसके द्वारा पाञ्चाल का संहार ( कर्ण० ४६ ॥ २१-२२ ) । पाण्डव-सेना का संहार ( कर्ण० ४८ । ९-१७ ) । कर्णपुत्र सुषेण और चित्रसेन द्वारा पिता के रथ के पहियों की रक्षा, वृषसेन द्वारा उसके पृष्ठभाग की रक्षा (कर्ण० ४८ ॥ १८-१९) । भीमसेन द्वारा कर्णपुत्र भानुसेन का वध (कर्ण० ४८ ॥ २७ ) । कर्ण द्वारा युधिष्ठिर पर आक्रमण (कर्ण० ४८ ॥ ६३ ) । युधिष्ठिर के साथ युद्ध में इसका मूर्च्छित होना (कर्ण० ४९ ॥ २१ ) । इसके द्वारा युधिष्ठिर के चक्ररक्षक चन्द्रदेव और दण्डधार का वध (कर्ण० ४९ ॥ २७ ) । युधिष्ठिर को परास्त करके उनका तिरस्कार करना ( कर्ण० ४९ ॥ ४८-५९(४४.७७) ) । भीमसेन द्वारा इसकी पराजय ( कर्ण० ५० ॥ ४७ ) । भीमसेन के साथ इसका घोर संग्राम (कर्ण० ५१ से अध्याय तक) । इसके द्वारा पाञ्चाल, चेदि और केकय-वीरों का भीषण संहार (कर्ण० ५६ ॥ ३८-६९ ) । धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध ( कर्ण० ५९ ॥ ७-१४) । इसके द्वारा शिखण्डी की पराजय (कर्ण० ६१ ॥ २३)। युधिष्ठिर को घायल करके युद्ध से विमुख कर देना ( कर्ण० ६२ ॥ २९-३१ ) । इसके द्वारा नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर की भीषण पराजय ( कर्ण० ६३ अध्याय ) । दुर्योधन की प्रेरणा से इसका भार्गवास्त्र प्रकट करना (कर्ण० ६४ ॥ ४७ ) । उत्तमौजा द्वारा कर्णपुत्र सुषेण का वध ( कर्ण० ७५ ॥ ९ ) । इसके द्वारा पाण्डवसेना का भीषण संहार ( कर्ण० ७८ अध्याय ) । अर्जुन के पराक्रम के विषय में शल्य से वार्तालाप ( कर्ण० ७९ ॥ ४९-७० ) । अर्जुन और भीमसेन द्वारा खदेड़े हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों को इसका शरण देना ( कर्ण० ८१ ॥ ५१ ) । इसके द्वारा कैकयराजकुमार विशोक का वध ( कर्ण० ८२ ॥ ३ ) || केकय-सेनापति उग्रकर्मा का वध ( कर्ण० ८२ ॥ ५ ) । सात्यकि द्वारा कर्णपुत्र प्रसेन का वध (कर्ण० ८२ ॥ ६ ) || इसके द्वारा धृष्टद्युम्न के पुत्र का वध (कर्ण० ८२ ॥ ९ ) । इसका भीमसेन के भय से भीत होना ( कर्ण० ८४ ॥ ७-८ ) । अर्जुन द्वारा कर्णपुत्र वृषसेन का वध ( कर्ण० ८५ ॥ ३६) । कर्ण व शल्य की ध्वजाओं का युद्ध (कर्ण० ८७।।३ ) । अर्जुन के साथ द्वैरथ युद्ध (कर्ण० ८९ अध्याय ) । कर्ण के सर्पमुख बाण से अर्जुन के किरीट का गिरना ( कर्ण० ९० ॥ ३३ ) । रथ का पहिया धंस जाने से उसे निकालने के लिये इसका रथ से उतरना और बाण न चलाने के लिये अर्जुन से अनुरोध करना ( कर्ण० ९० ॥ १०५-११६ ) ॥ अर्जुन द्वारा इसका वध (कर्ण० ९१ ॥ ५० ) । कर्ण के दाह-संस्कार का उल्लेख( स्त्री० २६ ॥ ३६) । ब्राह्मण द्वारा इसे शाप प्राप्त होने का प्रसंग (शान्ति० २ ॥ २३-२६)। इसे ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुरामजी का शाप (शान्ति० ३ अध्याय) । कलिङ्गराज की कन्या का दुर्योधन द्वारा अपहरण होने पर इसके द्वारा समस्त राजाओं की पराजय (शान्ति० ४ ॥ १७-२० ) । इसके बल-पराक्रम का वर्णन ( शान्ति० ५ अध्याय) । इसके द्वारा जरासंध की पराजय ( शान्ति० ५ । ४ ) । इसके द्वारा मालिनी और चम्पानगरी की प्राप्ति ( शान्ति० ५ । ६-७ ) । इसके कुण्डलदान की चर्चा (अनु० १३७ ॥ ९) । कुन्ती का व्यासजी के सम्मुख कर्ण के जन्मप्रसङ्ग की चर्चा और इसे देखने की इच्छा व्यक्त करना (आश्रम० ३० अध्याय) । कर्ण सूर्य का अंश था ( आश्रम० ३१ | १४ ) । व्यासजी के आवाहन करने पर कर्ण का भी प्रकट होना ( आश्रम० ३२ ॥ ९ ) । स्वर्ग में जाकर इसका सूर्यदेव में मिल जाना ( स्वर्गा० ५ ॥ २० ) ।
महाभारतमें आये हुए कर्ण के नाम-आधिरथि, आदित्यनन्दन आदित्यतनय; अङ्गराज, अङ्गेश्वर, अर्कपुत्र; भरतर्षभ, गोपुत्र, कौन्तेयः, कुन्तीसुत, कुरूद्वहः कुरुपृतनापति, कुरुवीर, कुरुयोध, पार्थ, पूषात्मज, राधासुत; राधात्मज, राधेय, रविसूनु, सौति, सावित्र, सूर्यज, सूर्यपुत्र सूर्यसम्भव, सूत सूतनन्दनः, सूतपुत्र, सूतसूनु, सूतसुत, सूततनयः, सूतात्मज, वैकर्तनः, वैवस्वत, वसुषेण; वृष ।। (२) धृतराष्ट्र का एक पुत्र ( आदि० ६७ ॥ ९५; आदि० ११६ ॥ ३ ) । भीमसेन द्वारा इस पर आक्रमण ( भीष्म० ७७ ॥ १६ ) । भीमसेन द्वारा इसका वध (भीष्म ७७।१६)
कर्णनिर्वाक–वानप्रस्थधर्म का पालन करके स्वर्ग को प्राप्त हुए एक ब्रह्मर्षि ( शान्ति० २४४ ॥ १८ ) । कर्णप्रावरण-( १) प्राचीन काल के मनुष्यों की एक जाति; जो दक्षिण समुद्र के तट पर रहती थी । सहदेव ने इस जाति के लोगों को परास्त किया था (सभा० ३१ ॥ ६७ )। ( जो अपने कानों से ही अपने शरीर को ढक लें, उन्हें कर्णप्रावरण कहते हैं । प्राचीन काल में ऐसी जाति के लोग थे, जिनके कान पैरों तक लटकते थे । ) इस जाति के लोग युधिष्ठिर को भेंट देने के लिये आये थे (सभा० ५२।१९)। ( २) दक्षिण भारत का एक जनपद । यहाँ के योद्धा दुर्योधन की सेना में थे ( भीष्म० ५१ ॥ १३ ) । कर्णप्रावरणा-स्कन्द की अनुचरी मातृका ( शल्य ० ४६ ॥ २५ ) । कर्णवेष्ट-एक क्षत्रिय राजा; जो 'क्रोधवश' संज्ञक दैत्य के अंश से उत्पन्न थे (आदि० ६७ ।। ६०-६६ ) । पाण्डर्वो की ओर से इन्हें रणनिमन्त्रण भेजा गया था ( उद्योग० ४ ॥ १५ ) । कर्णश्रवा-अजातशत्रु युधिष्ठिर का आदर करनेवाले एक महर्षि ( वन० २६ ॥ २३ ) । कर्णाटक-एक दक्षिण भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ५९ ) ।। कर्णिका-ग्यारह विख्यात अप्सराओं में से एक, जिसने अर्जुन के जन्म-समय में आकर नाच-गान किया था ( आदि० १२२ । ६४-६६ ) । कर्णिकारवन-सुमेरु पर्वत के उत्तर भाग में समस्त ऋतुओं के फूलों से भरा हुआ एक दिव्य एवं रमणीय वन ( भीष्म० ६। २४ ), द्रोण ३६।१२ । Comments on Karna
कर्ण - मत्स्य १४५.१०८ ( कर्णक : ६ आत्रेय मन्त्रकर्त्ता ऋषियों में से एक ), १७९.१५ ( कर्णमोटी : अन्धकों के रक्तपान हेतु शिव द्वारा सृष्ट मातृकाओं में से एक ), १९७.३ ( कर्णजिह्व : अत्रि / शरायण वंश में उत्पन्न ऋषियों में से एक ), वामन ६.९१ ( कर्णोदर : कापालिक सम्प्रदाय के आचार्य धनद / कुबेर के शूद्रजाति के शिष्य का नाम ), ५७.८२ ( कर्णा नदी द्वारा स्कन्द को विद्रुमसन्निभ नामक गण प्रदान करना ), स्कन्द ४.२.८४.४५ ( कर्णादित्य तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य :भास्करी श्री की प्राप्ति ), ४.२.७२.९९ ( कर्ण प्रावरण : ६४ वेतालों में से एक ), लक्ष्मीनारायण १.३७०.६७ ( नरक के कर्णविट् कुण्ड प्रापक कर्मों का उल्लेख ), २.११.५( कृष्ण के कर्णवेधन करने वाली सूची के दिव्य कन्या बनने का वृत्तान्त ), ३.१६.५१ ( ब्रह्म कर्ण मल से उत्पन्न जलधि नामक शिशुमार के वरुण का वाहन होने का उल्लेख ) ।
कर्णाटक गणेश २.३६.२७ ( राम द्वारा कर्णाटक में वक्रतुण्ड नाम से गणेश की स्थापना का कथन ), गर्ग ७.१०.३१ ( कर्णाटक के राजा सहस्रजित् द्वारा प्रद्युम्न को भेंट ), देवीभागवत ७.३८.९ ( कर्णाटक क्षेत्र में चन्द्राला देवी का वास ), भागवत ५.६.७ ( परमहंस ऋषभदेव का कर्णाटक के देशों में विचरण व कुटक वन में दावाग्नि में भस्म होना, कर्णाटक देश के राजा अर्हत् का पाखण्ड धर्म का आचरण करना ), विष्णुधर्मोत्तर ३.१२१.४( कर्णाटक में अश्वशिरा की पूजा का निर्देश ), स्कन्द ३.२.१८ ( कर्णाटक दैत्य का मातङ्गी देवी से युद्ध, मातङ्गी द्वारा चर्वण करने पर कर्णाटक द्वारा मातङ्गी के कर्णों से बाहर निकलना, मातङ्गी - भगिनी श्यामला से युद्ध में मृत्यु ), ४.१.३३.९१ ( कर्णाटक - नृप की पुत्री कलावती की कथा ), लक्ष्मीनारायण १.४४०.८४ ( योगमालिनी द्वारा कर्णाट राक्षस का वध, देश का कर्णाटक नाम प्रचलित होना ), कथासरित् १०.५.३२३ ( कर्णाटक देश के योद्धा द्वारा अपने नृप से नापित को अभीष्ट रूप में प्राप्त करने की मूर्खता ), १२.५.२८४ ( कर्णाटक देश के निवासी मलयमाली वणिक् की इन्दुयशा नामक राजकन्या पर आसक्ति, पुन: ध्यानपारमिता की प्राप्ति का वर्णन ), १२.११.११९ ( वीरवर व उसके पुत्र सत्त्ववर की राज्यभक्ति पर प्रसन्न होकर राजा शूद्रक द्वारा उन्हें लाट व कर्णाट देश का राज्य प्रदान करना ), १८.३.३ ( कर्णाट देश के राजा जयध्वज द्वारा राजा विक्रमादित्य को प्रणाम करने का उल्लेख ) । karnaataka
कर्णिका भागवत ९.२४.४४ ( उग्रसेन - पुत्र? कङ्क की पत्नी, ऋतधाम व जय की माता ), वायु ३४.४६ ( पृथ्वी रूपी पद्म की कर्णिका पर मेरु पर्वत की स्थिति ), ३४.६२ ( अत्रि, भृगु, सावर्णि आदि ऋषियों के दृष्टिकोणों में पद्म की कर्णिका के रूपों का कथन )। karnikaa
कर्णिकार भविष्य १.५७.१५( अश्विनौ हेतु कर्णिकार बलि का उल्लेख ), मत्स्य ६.३६ ( जटायु - पुत्र, शतगामी - भ्राता ), लिङ्ग १.८१.३५( कर्णिकार कुसुम पर मेधा की स्थिति का उल्लेख ), स्कन्द ४.२.६९.१२८ ( कर्णिकार वृक्ष के पुष्प से धरणि वाराह की अर्चना का संक्षिप्त माहात्म्य : उपसर्गों से मुक्ति ), ६.२६६.५० ( लुब्धक का धन हरण के उद्देश्य से कर्णिकार वृक्ष पर छिपना, वृक्ष के नीचे स्थित लिङ्ग की अर्चना से जन्मान्तर में दशार्णाधिपति बनना ), महाभारत द्रोण ३६.१२ । karnikaara