टिप्पणी : रुद्र द्वारा ब्रह्मा के अहंकार युक्त शिर का छेदन करने पर कपाल के हस्त से लग्न हो जाने जैसे पौराणिक कथानकों का वैदिक साहित्य में कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं आता । पौराणिक कथाओं के अनुसार रुद्र के हस्त से कपाल का मोचन काशी में जाने पर ही हुआ । अन्य कथा में इन्द्र द्वारा वृत्र की हत्या पर वृत्र का कपाल इन्द्र के हस्त से संलग्न हो गया और वह हाटकेश्वर क्षेत्र में स्नान से ही मुक्त हो पाया । यह कथाएं संकेत करती हैं कि बहिर्मुखी वृत्ति को अन्तर्मुखी कर लेना ब्रह्मा अथवा वृत्र का शिर काटने जैसा है । लेकिन इतना करना ही पर्याप्त नहीं है । बुराईयां संस्कार रूप में पीछे रह जाती हैं जो हस्त रूपी कर्मेन्द्रिय से चिपकी रहती हैं । काशी आदि क्षेत्रों ( योग में तीसरी आंख का स्थान ) में, जहां संस्कार भी भस्म हो जाते हैं, कपाल का हस्त से मोचन हो सकता है । अतः पुराणों के अनुसार कपाल किसी प्रकार से पूर्व संस्कारों से जुडा है । वैदिक साहित्य में कपाल अथवा कपालों के ऊपर पुरोडाश को स्थापित किया जाता है । पुरोडाश की हवि अग्नि में विभिन्न देवताओं हेतु दी जाती है । शतपथ ब्राह्मण १.२.१.७ आदि में दर्शपूर्ण मास यज्ञ के संदर्भ में कपाल को पृथिवी पर ध्रुव, अन्तरिक्ष में धरुण ( जल आदि को धारण करने वाला ) तथा द्युलोक में धर्त्र की संज्ञा दी गई है । आटे को पीसकर उसे गूंथकर व पकाकर कपाल के मुख पर स्थापित किया जाता है । इसे पुरोडाश कहते हैं । कहा गया है कि कपाल द्वारा पुरोडाश का श्रपण/ पकना होता है । इस क्रिया में कपाल का योगदान गौण सा प्रतीत होता है । लेकिन शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.११ में पृथिवी आदि विभिन्न स्तरों पर सृष्टि प्रक्रिया के संदर्भ में अण्डकपालों के उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है । पहले अण्डकपाल के रस से अग्नि उत्पन्न हुई, अण्ड के कपाल से जो रस लिप्त था, उससे अज उत्पन्न हुआ और जो कपाल था, वह पृथिवी बना । फिर अग्नि ने पृथिवी में रेतस् का सिञ्चन किया । उस अण्डकपाल के रस से वायु, लिप्त रस से मरीचियां तथा कपाल से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ । फिर वायु ने अन्तरिक्ष से मिथुन किया । इससे उत्पन्न अण्डकपाल के रस से आदित्य, लिप्त रस से रश्मियां तथा कपाल से द्युलोक उत्पन्न हुए । फिर आदित्य व द्यौ के मिथुन से उत्पन्न अण्डकपाल के रस से चन्द्रमा, लिप्त रस से अवान्तर दिशाएं तथा कपाल से दिशाएं उत्पन्न हुई । इस प्रकार कपाल से चन्द्रमा की उत्पत्ति सर्वोच्च स्थिति है । पुरोडाश मर्त्य स्तर पर चन्द्रमा का रूप हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण ४.४.५.१५ के अनुसार रस ही पुरोडाश है । दर्शपूर्ण मास यज्ञ हविर्यज्ञों में से एक है, अतः उसमें पुरोडाश की हवि दी जाती है, लेकिन सोम यागों में हवि की आहुति नहीं दी जाती, केवल सोम की आहुति दी जाती है । सोम की आहुति के लिए काष्ठ के पात्रों का उपयोग किया जाता है जो ध्यान का, काष्ठ की भांति गहरे ध्यान का प्रतीक हो सकते हैं । दूसरी ओर, कपाल मृन्मय होता है । यह मर्त्य स्तर का प्रतीक हो सकता है । स्कन्द पुराण आदि की कथाओं में कपाली रुद्र द्वारा सोमयाग में प्रथम दिन आकर उपद्रव करने पर सोमयाग में भी कपाल पर स्थित पुरोडाश की आहुति की प्रतिष्ठा होने का तथ्य उल्लेखनीय है । कपाल शब्द का सामान्य अर्थ क का, सुख का पालन करने वाला कर सकते हैं । उणादि कोश में कपाल की व्युत्पत्ति कपि धातु में ल प्रत्यय द्वारा की गई है । कपि धातु कम्पन, चञ्चलता के अर्थ में आती है । अतः चञ्चलता का लालन करने वाले पात्र को कपाल कह सकते हैं । कपाल के इस गुण को समझने के लिए आधुनिक विज्ञान में केविटी शब्द की सहायता ले सकते हैं । किसी प्रकार की ऊर्जा को सुरक्षित रखने के लिए केविटी का आश्रय लिया जाता है । केविटी में ऊर्जा की तरङ्गें केविटी की भित्तियों से परावर्तित होती रहती हैं और केविटी में ऊर्जा का क्षय नहीं होता । केविटी ऊर्जा को सुरक्षित रखने का एक पात्र है । इसी प्रकार चेतना के स्तर पर ऊर्जा को सुरक्षित रखने के लिए पात्र को कपाल नाम दिया गया है । तैत्तिरीय संहिता २.२.९.७ में कहा गया है कि कपालों से ही छन्दों को प्राप्त किया जाता है । यज्ञ में विभिन्न देवताओं को अष्टाकपाल पुरोडाश, एकादशकपाल पुरोडाश, द्वादश कपाल पुरोडाश आदि की हवि अर्पित की जाती है । इन पुरोडाशों में कपालों की संख्या छन्दों के अक्षरों के अनुसार होती है । गायत्री छन्द के एक पद में ८ अक्षर होते हैं, अतः अग्नि का अष्टाकपाल पुरोडाश होता है । त्रिष्टुप् छन्द के एक पद में ११ अक्षर होते हैं, अतः इन्द्र, इन्द्राग्नि, अग्नीषोम आदि का एकादश कपाल पुरोडाश होता है आदि । यह अक्षर केवल कहने के लिए ही अक्षर नहीं हैं, अपितु इन्हें वास्तविक रूप में ऊर्जा के संदर्भ में अ - क्षर बनना पडता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.३९५ में अच्छिद्र कपाल का उल्लेख आता है । यहां छिद्र शब्द भी कपाल से ऊर्जा के क्षरण के संदर्भ में समझना चाहिए । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.७.४ में अष्टाकपाल को पुरुष के शिर का प्रतीक कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ४.४.५.१५ में वरुण के एक कपाल को शरीर का प्रतीक कहा गया है । शरीर के या शिर के इन्द्रिय रूपी छिद्रों से ऊर्जा का क्षरण न हो, यह अपेक्षित है । आधुनिक विज्ञान में केविटी के अन्दर ऊर्जा को सुरक्षित रखने के लिए उसकी दीवारों को या सतह को विशेष प्रकार का बनाया जाता है । उदाहरण के लिए यदि प्रकाश को सुरक्षित रखना है तो केविटी की भित्तियों से प्रकाश का पूर्ण, १००% परावर्तन होना चाहिए, प्रकाश के किसी अंश का भित्तियों में शोषण नहीं होना चाहिए । कपाल के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.११ में अण्डकपाल की भित्तियों से लिप्त रसों के क्रमशः अज, मरीचि, रश्मि व अवान्तर दिशाएं बनने का उल्लेख आता है । हो सकता है कि यह उल्लेख कपाल रूपी केविटी की वास्तविक रचना की जानकारी देने के लिए ही हो । अण्डकपाल के इस संदर्भ में अश्रुओं का उल्लेख भी आता है जिसे अभी समझने की आवश्यकता है । वैदिक साहित्य में एक कपाल पुरोडाश से लेकर एकविंश कपाल पुरोडाश तक के उल्लेख आते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.७.४ के अनुसार पहले पुरुष एक कपाल होता है, फिर २, फिर ३, फिर ८ । सम्यक व्याख्या अपेक्षित है । ऊपर पृथिवी से लेकर दिशाओं तक कपालों के विकास का उल्लेख किया गया है । ऐसा समझना चाहिए कि पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि कपाल कोई अलग - अलग पात्र नहीं हैं , अपितु अग्नि के पृथिवी तत्त्व से संयोग करने पर पृथिवी कपाल का जन्म होता है । अन्तरिक्ष कपाल का विकास सूक्ष्म रूप में इसी पृथिवी कपाल के अन्दर होता है । फिर इससे भी सूक्ष्म द्यु कपाल का विकास अन्तरिक्ष कपाल के अन्दर होता है जो सूर्य को धारण करता है । जड जगत से सम्बन्ध रखने वाले आधुनिक विज्ञान में ऐसा उदाहरण खोजना कठिन है जहां एक केविटी के अन्दर ही दूसरी केविटी का विकास किया गया हो । पुराणों में रुद्र द्वारा ब्रह्मा/अज का शिर काटने से कपाल के बनने के उल्लेखों के संदर्भ में वैदिक साहित्य में पृथिवी रूपी अण्ड कपाल पर लिप्त रस से अज के उत्पन्न होने का उल्लेख विचारणीय है । कपर्दी शिव के संदर्भ में शङ्कुकर्ण मुनि द्वारा ब्रह्मपार स्तोत्र द्वारा कपर्दी की आराधना का वर्णन आता है । कपाल शब्द की व्याख्या भी क - पार या ब्रह्मपार के रूप में की जा सकती है । प्रथम लेखनः- २८.१.२००५ई.
KAPAALA
In sacrificial rituals, a kapaala is a vessel made of fired clay. The most common use of a kapaala vessel in Somayaga is for ripening of a type of bread called PURODAASHA which is offered as an oblation to gods. This Purodaasha is considered to represent the human head or mind. The shape of Purodaasha is also like a human head or say a double bread. In rituals, burning coal is put inside the kapaala vessel and purodaasha is kept on it’s mouth as if the coal fire will ripen the purodaasha. As appears from puranic and vedic contexts, kapaala also represents a human head. But at the level of consciousness, there may be several stages of development of kapaala. Mostly, three stages have been mentioned – at ground level, at mid level and the highest level. Kapaala still occupies its place in a Hindu daily life. At Deepaavali festival, there is a practice of putting roasted rice in an earthen vessel and then putting a sugar article resembling purodaasha on it’s mouth. Kapaala Bhedan or breaking of kapaala ritual is performed over a dead body. Regarding the meaning of word Kapaala, letter ka represents the pleasures of this world ( on the other hand, letter Kha represents sky or the world beyond, the world of trance ). So, the instrument responsible for making the worldly pleasures available to us can be called a kapaala. If letter la in kapaala is replaced by letter ra, then it will mean one which takes beyond the pleasures of this world. And this meaning has been utlilzed by puranic texts when these refer to Brahmapaara Stotra. There are intriguing universal contexts in puraanic texts of kapaala being attached to hands after it was cut from the head and special efforts have to be made to get the kapaala unattached. The possible meaning of this may be that the quality of action or our past deeds remains attached to the kapaala even after it is cut. This prevents preservation of energy by utilizing it in action. In sacrificial rituals, different types of kapaala and accordingly different types of Purodaasha have been mentioned. The difference exists in the number of kapaala on which Purodaasha is ripened. Sometimes 8 –kapaala purodaasha is mentioned, sometimes 11 etc. This number refers to the letters in Chhanda or meter and therefore, understanding the meaning of different Chhanda becomes necessary. One is directed to read the following link in this connection : RISHI and CHHANDA From modern scientific point of view, the most important property of a kapaala vessel seems to be – to how much extent it can become a cavity to conserve energy. This cavity of Hindu mythology is such that it has cavity inside a cavity. Each inner one has higher perfection. It can be said that this is only a beginging to understand the word KAPAAL