ESOTERIC ASPECT OF ARMOUR Nature has provided various armours for our body. But these armours are very slow and often it becomes desirable to enhance this process. All types of antibodies in our body can be called the natural armours. In the realm of consciousness also, some armours are prescribed, just like a soldier wears armour in the battlefield for his defence. In Hindu mythology, these armours are called KAVACHA and VARMA. Puranic texts are full of details of various types of armours attributed to different gods. Any ritual can not be performed unless one has worn one or the other esoteric armour. Armours have got their origin from Atharva-veda where there are often mentions of SHARMA(literal meaning peace) and VARMA together. The process of Sharma falls under a Brahmin and Varma under a warrior. It is considered that every part of human body is procted by a particular god and when these god disappear from their place for some reason, armour is required. In puraanic texts, Lord Vishnu etc. often deceive the devotees and demons by demanding the armour from a person involved in fighting. One explanation of it can be that there are various armours at various levels and a person often gets confined to one level only, practicing his particular armour. This is not acceptable to supreme lord and therefore an act of deceit is done.
कवच
टिप्पणी : वैदिक साहित्य में कवच शब्द बहुत कम प्रकट हुआ है । कवच के बदले वर्म और परिधि शब्दों का प्रयोग किया गया है । लेकिन तैत्तिरीय संहिता ४.५.६.२, शुक्ल यजुर्वेद १६.३५ आदि में कवची और वर्मी शब्द साथ - साथ आते हैं । अतः कवच और वर्म शब्दों के अर्थों में सूक्ष्म अन्तर होना चाहिए जो भविष्य में अन्वेषणीय है । वर्म शत्रु से युद्ध में शरीर की रक्षा के लिए धारण करने वाले कठोर वस्त्र को कहते हैं । सूक्ष्म दृष्टि से सोचें तो हमारी देह में बहुत से रस, प्रतिविष कण, एण्टीबांडी उत्पन्न होते हैं जो देह के स्तर के शत्रुओं वायरस, बैक्टीरिया आदि से हमारी रक्षा करते हैं । अतः इन रसों को या कणों को वर्म कहा जा सकता है । लेकिन इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि आज हम आधुनिक विज्ञान के माध्यम से यह जान रहे हैं कि प्रतिविष कण होते हैं । क्या प्राचीन आयुर्वेद में भी प्रतिविषों का उल्लेख आता है ? आयुर्वेद में काया कल्प के संदर्भ में कृमियों का उल्लेख आता है जिनसे कायाकल्प के द्वारा मुक्ति पाई जा सकती है । अन्यथा सारा आयुर्वेद ओषधियों द्वारा वात, पित्त और कफ की विकृतियों को दूर करने पर ही केन्द्रित प्रतीत होता है । अब सार्वत्रिक रूप से किया जाने वाला प्रश्न यह है कि देह के स्तर पर प्रतिविषों की मात्रा में कैसे वृद्धि की जाए । तीर्थंकर महावीर, मीरा तथा अन्य योगियों के विषय में तो कहा जाता है कि उन पर विष का कोई प्रभाव नहीं होता । जैसा कि अन्य शब्दों की टिप्पणियों में भी कहा जा चुका है, विष के प्रतीकार के लिए प्रतिविष कणों को उत्पन्न करने की दर बहुत तेज होनी चाहिए, जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि यह बहुत धीमी है । अतःआधुनिक चिकित्सा विज्ञान में विष के प्रतीकार के लिए पहले से ही तैयार प्रतिविष कणों का इन्जvक्शन दिया जाता है । प्रतिविषों, जिन्हें वर्तमान टिप्पणी के लिए देह के कवच या वर्म नाम दिया गया है, के उत्पन्न होने की दर को कैसे अधिक किया जा सकता है ? इसका उत्तर वैदिक साहित्य के आधार पर देने का प्रयास किया जा सकता है । अथर्ववेद १९.१९ सूक्त में मित्र, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, सोम, यज्ञ, समुद्र, ब्रह्म, इन्द्र, देव और प्रजापति आदि देवता अपने - अपने स्थानों से तिरोहित हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में प्रत्येक देवता द्वारा रिक्त स्थान पर शर्म, वर्म का निर्माण करना पडता है । इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्म का निर्माण बहुत से स्तरों पर करना होता है ।
अथर्ववेद १८.४.९ में आहवनीय और गार्हपत्य अग्नियों द्वारा शं करने तथा दक्षिणाग्नि द्वारा शर्म और वर्म करने का उल्लेख है । इस संदर्भ से प्रतीत होता है कि वर्म बनाने का सारा कार्य दक्षिणाग्नि का ही है । आहवनीय अग्नि प्राण से और गार्हपत्य अग्नि अपान से सम्बन्धित कही जाती है । प्राण और अपान के बीच के अन्तराल में, जब प्राण अस्त हो गए हों और अपान का उदय न हुआ हो, व्यान का जन्म होता है जो दक्षिणाग्नि से सम्बन्धित हो सकता है । व्यान मन से भी सम्बन्धित है । दक्षिणाग्नि रस उत्पन्न करने वाला माना जाता है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, रस से तात्पर्य केवल खट्टे, मीठे रसों से ही नहीं हो सकता, अपितु हमारी देह में जितने एन्जाइम आदि रस उत्पन्न होते हैं, जो हमारे शरीर को नियन्त्रित करते हैं, जो देह के लिए वर्म का कार्य करते हैं, उनसे हो सकता है । दक्षिणाग्नि पर नल नैषध का आधिपत्य है जो रस उत्पन्न करने में विशेषज्ञ है ।
शतपथ ब्राह्मण १.३.३.१३, तैत्तिरीय संहिता २.६.६.२, ६.२.८.६, काठक संहिता २५.७ आदि में सार्वत्रिक रूप से एक आख्यान आता है कि भुव:पति/भूपति, भुवनपति और भूतपति नामक तीन अग्नियां तो देवों के लिए हवि वहन करते - करते मर गई । तब देवों ने चौथी अग्नि भूत को, जो पहली तीन अग्नियों का कनिष्ठ भ्राता है, हवि वहन करने के लिए चुनना चाहा । भूत अग्नि अपने तीन ज्येष्ठ भ्राताओं की मृत्यु देख कर वेणु आदि में छिप गया और अपने छिपने कि लिए वेणु में ग्रन्थियां और पर्व बना लिए(शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.३१ आदि) । देवों ने किसी प्रकार उसे ढूंढ लिया । अग्नि ने इस शर्त पर हवि वहन करना स्वीकार किया कि उसके तीन मृत भ्राता उसकी परिधियां बनेंगे और स्वयं उसे इन्द्र के वज्र रूपी वषट्कार(ओ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे, वौषट्) का, शत्रुओं को दूर करने के लिए वज्र का सामना करना नहीं पडेगा, अपितु यह कार्य परिधि अग्नियों के जिम्मे होगा । इन तीन परिधि अग्नियों को मध्यम, दक्षिण और उत्तर परिधियां कहा जाता है जिनके विशिष्ट लक्षण मिलते हैं, जैसे मध्यम परिधि विश्वावसु गन्धर्व से, दक्षिण इन्द्र की बाहु से और उत्तर मित्रावरुण से सम्बन्धित हैं(शतपथ ब्राह्मण १.३.४.२) । शतपथ ब्राह्मण ९.४.४.२ में इन तीन परिधियों को एक सुपर्ण का रूप दिया गया है जिसमें मध्यम परिधि सुपर्ण की आत्मा और शेष २ उसके २ पक्ष हैं । कहा गया है कि तीन परिधियों की अग्नियां मनुष्यों से सम्बन्धित हैं, मनुष्यों के लिए हवि वहन करती हैं । यह भी कहा गया है कि मनुष्य अग्नियां केवल तृतीय सवन में जाग्रत होती हैं, अन्य सवनों में यह सोती रहती हैं, वैसे ही जैसे मनुष्य सोते रहते हैं(तृतीय सवन में ऋभु आदि मनुष्य देवताओं का महत्त्व सर्वविदित है) । इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि परिधि या वर्म रूपी ३ अग्नियां देवताओं के लिए हवि वहन करने वाली अग्नि की सहायक मात्र हैं ।
ऋग्वेद ६.७५.१ में रथ पर वर्म आदि के साथ युद्ध के लिए जाते हुए राजा की उपमा जीमूत या मेघ से की गई है(पुराणों में जीमूत की निरुक्ति जीव की रक्षा करने वाले के रूप में की गई है) । प्रश्न उठता है कि वर्मी बनने की चरम परिणति क्या है ? इसका संकेत ऋग्वेद ६.७५.८ से मिलता है जिसमें कहा गया है कि युद्ध से जो धन जीत कर रथ में रख कर लाया जाता है, वह हवि है । यह संकेत करता है कि वर्मी बनने का पहला लाभ तो यह है कि जीव को जीवन शक्ति मिलती है । दूसरे, देवों को हवि वहन करने वाली अग्नि, चेतना सशक्त बनती है । सूक्त का अन्त ब्रह्म वर्म ममान्तरम् पद से होता है । ब्रह्म वर्म का उल्लेख अथर्ववेद में अन्य स्थानों जैसे १.१९.४, ५.८.६, ८.२.१०, ९.२.१६, ११.९.१७, १७.१.२७-२८ में भी मिलता है । क्या यह सर्वोच्च ब्रह्म के वर्म बनने का प्रतीक है ? । अथर्ववेद ८.२.१० में ब्रह्म की शक्ति ब्रह्मचारी का उल्लेख है । यह विचारणीय है कि पुराणों में जो शिव कवच, नारायण कवच, कृष्ण कवच आदि मिलते हैं, क्या वे इसी ब्रह्म वर्म के प्रतीक हैं या वर्म के क्रमिक स्तरों के ? महाभारत द्रोण पर्व १०२ में अर्जुन द्वारा मानवास्त्र से ब्रह्मा द्वारा दुर्योधन को प्रदत्त वर्म को छिन्न करने के प्रयास का वर्णन आता है । अथर्ववेद में फालमणि(१०.६.२), स्राक्त्य मणि(८.५), अज पञ्चौदन के दान से उत्पन्न(९.५.२६), दर्भ मणि आदि द्वारा उत्पन्न वर्मों के उल्लेख मिलते हैं और यह विचारणीय है कि क्या यह चरम स्तर के ब्रह्म वर्म के बीच के स्तर हैं या स्वतन्त्र रूप से कोई वर्म हैं ?
वैदिक मन्त्रों में प्रायः शर्म और वर्म शब्द साथ - साथ प्रकट होते हैं(उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.११४.५) । वर्तमान काल में ब्राह्मण वर्ण के मनुष्यों के नामों में शर्मा और क्षत्रिय वर्ण के मनुष्यों के नामों में वर्मा जुडा रहता है । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शर्म ब्राह्मणत्व तथा वर्म क्षत्रियत्व से सम्बन्धित है । शतपथ ब्राह्मण ६.४.१.१० में यज्ञ हेतु खोदी गई मृदा को कृष्णाजिन पर रख कर उस पर पुष्करपर्ण रखते हैं । इन्हें क्रमशः शर्म व वर्म कहा गया है । एक भूमि है, दूसरा द्युलोक ।
ऐतरेय ब्राह्मण १.२५ तथा तैत्तिरीय संहिता २.६.१.५ में प्रयाजों व अनुयाजों को देववर्म कहा गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों में शीर्ष प्राणों, ऋतुओं आदि को प्रयाज कहा गया है । इनके द्वारा शत्रुओं पर प्र - जय की जाती है, अतः इन्हें परोक्ष रूप में प्रयाज कहा जाता है । प्रयाज काल में आ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे, वौषट् नामक व्याहृतियों का उच्चारण किया जाता है जिनके निहितार्थों की व्याख्या की गई है । जैसा की इस टिप्पणी में कहा जा चुका है, देवताओं की हवि का वहन करने वाली अग्नि के लिए वषट्कार का निषेध है, वर्म बनाने वाली अग्नियों के लिए ही वषट्कार विहित है । तैत्तिरीय संहिता ५.७.७.२, शतपथ ब्राह्मण १.८.३.२५ आदि में प्रस्तर शब्द के साथ परिधि, बर्हि शब्दों का उल्लेख आता है जिससे संकेत मिलता है कि केन्द्रीय चेतना जिसे भूत नाम दिया गया है, वह प्रस्तर भी हो सकती है । कपिष्ठल कठ संहिता ३०.८ तथा ४७.१५ में भूत का उल्लेख आता है । भू व्याहृति से भूत को प्रजापति कहा गया है । भूत को भूतकाल भी कहा जा सकता है और भू के अनुसार यह वर्तमान काल भी हो सकता है । यह विचारणीय है कि क्या भविष्य काल भूत का वर्म रूप है ? भूतपति अग्नि, जो तृतीय परिधि का नाम है, सूर्य का वाचक कहा गया है ।
पौराणिक कवचों में किसी कवच में १२, किसी में २४, किसी में ३५, ४५, ४८ नामों द्वारा कवच का निर्माण किया गया है । दुर्गा सप्तशती के आरम्भ में पाए जाने वाले कवच में तो ९० देवियों के नाम हैं । शतपथ ब्राह्मण ६.३.३.२५ में अग्नि का वर्म बनाते समय गायत्री, अनुष्टुप् व त्रिष्टुप् छन्दों द्वारा त्रिपुर का निर्माण किया जाता है । यह अन्वेषणीय है कि पौराणिक कवचों में नामों की संख्या क्या किसी प्रकार से छन्दों के वर्णों की संख्या द्वारा नियन्त्रित होती है ? किसी भी अनुष्ठान से पूर्व कवच का अभ्यास अनिवार्य है । वर्तमान समय में कवच का सम्यक् उपयोग तभी सम्भव है जब कृष्ण, शिव आदि के जिन नामों का कवचों में उपयोग किया गया है, उन नामों के अर्थ और निहितार्थ ज्ञात हों ।
पौराणिक साहित्य में देवताओं द्वारा कर्ण, शङ्खचूड असुर आदि के वध के उपायों के रूप में उनके कवचों के हरण की कथाओं का वर्णन आता है । इन कथाओं का क्या तात्पर्य हो सकता है ? ऐसा विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति नैसर्गिक रूप से कोई न कोई कवच धारण करके उत्पन्न होता है । लेकिन उसकी चेतना उसी कवच तक सीमित रहना चाहती है, आगे विकास नहीं करना चाहती । वैदिक साहित्य में अग्नि के वेणु में छिपने और वहां छिपने के लिए ग्रन्थियों व पर्वों का निर्माण करने आदि के उल्लेख आते हैं । सम्यक् ज्ञान के अभाव में चेतना का किसी एक कवच में, कोश में अटक जाना ही ग्रन्थि हो सकता है । और वेणु के पर्व हमारे अन्नमयादि कोश हो सकते हैं । हमारी चेतना अन्नमयादि किसी भी कोश में घुस कर बैठ जाती है और उसी को अपना सुरक्षा कवच बना लेती है । चेतना को आगे बढाने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसके इस सुरक्षा कवच को तोडा जाए । भारतीय वाङ्मय में वर्णित कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग हमारी तत्तद् कोश में अटकी हुई चेतना को आगे बढाने तथा उसकी सुरक्षा ग्रन्थि को तोडने के ही विभिन्न उपाय हैं । पुराणों में उल्लेख आते हैं कि विष्णु ने ब्राह्मण का रूप धारण कर कवच धारी व्यक्ति से उसका रक्षा कवच मांग लिया और कवच रहित होने के कारण वह मृत्यु को प्राप्त हो गया । स्थूल दृष्टि से देखने पर तो विष्णु का यह कृत्य छल प्रतीत होता है, परन्तु तात्त्विक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि यह कोश विशेष में अटकी हुई चेतना को आगे की ओर अग्रसर करने के लिए ईश्वर द्वारा किया गया एक कृपापूर्ण कृत्य है । जब चेतना प्रयत्नपूर्वक उपर्युक्त उपायों का आश्रय नहीं ले पाती, तब विष्णु का छल रूप उपाय ही चेतना को गतिमान करता है ।