पुराणों में कलश नृप द्वारा दुर्वासा को मांसयुक्त भोजन प्रस्तुत करने से व्याघ्र बनने और गौ से संवाद पर मुक्त होने की जो कथा है, लगता है कि यह कथा वेद की ऋचाओं में कलश शब्द की व्याख्या कर रही है । सोमयाग में सोम वल्ली को कूट कर उसके रस को जल में मिलाया जाता है और उसके पश्चात् उसे अवि? के बालों से बने एक वस्त्र द्वारा छाना जाता है और स्वच्छ द्रव को वस्त्र के नीचे रखे उदुम्बर काष्ठ से निर्मित द्रोणकलश में एकत्र किया जाता है । इसी द्रोणकलश से सोम को अन्य पात्रों में लेकर उसकी आहुति दी जाती है । वैदिक ऋचाओं में कहा गया है कि पहले तो सोम का कलश में प्रवेश होना कठिन है । यदि अवि के बालों से बने वस्त्र से शोधन के पश्चात् (ऋ. ९.९७.४) सोम का प्रवेश कलश में हो जाए तो वहां उसका गायों (गोभि:) द्वारा शोधन किया जाता है (ऋ. ९.८.६, ९.७९.१व ९.८५.५ )। ऋग्वेद ९.९६.२२ के अनुसार गायों द्वारा आवृत किए जाने के पश्चात् सोम कलशों में प्रवेश करता है । ऋग्वेद ९.१२.५ से संकेत मिलता है कि सोमयाग में सोम को शुद्ध करने का, पवित्र/वस्त्र से छानने का जो कृत्य बाह्य रूप में किया जाता है, वह कलश में आन्तरिक रूप से होना चाहिए । ऋग्वेद ९.६०.३, ९.६८.९ व ९.९२.६ से संकेत मिलता है कि वालों से शोधन के पश्चात् ही सोम कलशों की ओर अग्रसर होता है । ऋ. ९.८८.६ के अनुसार शोधन के पश्चात् सोम कलशों में इस प्रकार प्रवेश करता है जैसे नीचे ? सिन्धु समुद्र में प्रवेश कर जाते हैं । ऋग्वेद ९.९३.२ के अनुसार सोम कलश में इस प्रकार जाता है जैसे मर्य स्त्री के प्रति । ऋग्वेद ९.९७.२२ के अनुसार कलश में इन्दु(सोम?) गायों के लिए पति रूप होता है । शोधन के पश्चात् सोम मदयुक्त हो जाता है( ऋ. ९.१८.७) । कलश में प्रवेश करने के पश्चात् सोम वहां गायों के बीच शूर की भांति बैठता है (ऋ. ९.६२.१९) । ऋग्वेद ४.२७.५ में एक श्वेत कलश का उल्लेख है जो गायों/किरणों से आपूरित है तथा जिससे इन्द्र अन्ध: से शुक्र का पान करता है । ऋ. ९.७४.८ में गायों/किरणों से ढंके एक कलश का उल्लेख है जिसमें वाजी रूप सोम प्रवेश कर जाता है । ऋग्वेद ९.८१.२ में सोम भार वहन करने वाले अत्य/अश्व के रूप में कलश में स्थित होता है । ऋ. ९.६३.१३ तथा ९.६७.१५ के अनुसार शोधित सोम कलश में रस की स्थापना करता है(अथवा सोम में निहित रस व्यक्त होने लगता है ) । ऋग्वेद ४.३२.१९ में १० हिरण्य कलशों का उल्लेख है । ऋ. ९.७५.३ में हिरण्यय कोश में कलशों के कल्पन? का उल्लेख है । ऋग्वेद ९.८५.७ में कलश में दस क्षिपों द्वारा अत्य/अश्व रूप सोम का मार्जन करने का उल्लेख है । शब्दकल्पद्रुम में कलश शब्द की निरुक्ति कलं शवति प्राप्नोति इति की गई है । इसका अर्थ यह हुआ है कि जो सोम अश्व रूप है, उसका कलश में प्रवेश कराना है, उसे गौ के स्तर पर लाना है । । डा. लक्ष्मीनारायण धूत के अनुसार हमारी यह देह ही कलश है । अथवा यह कह सकते हैं कि पांच ज्ञानेन्द्रियां तथा पांच कर्मेन्द्रियां मिलकर १० कलशों का निर्माण करते हैं ।