कात्यायन टिप्पणी कात्यायन शब्द की निरुक्ति कात्य - अयन, कत के पुत्र के अयन के रूप में की जा सकती है । कत शब्द की निरुक्ति शब्दकल्पद्रुम में कं तनोति, क या जल या सुख का विस्तार करने वाले के रूप में की गई है । इस लोक को भी क का नाम दिया जाता है और यह अर्थ सबसे उपयुक्त लगता है । वैदिक साहित्य में कत शब्द का प्रयोग श्रौत ग्रन्थों को छोडकर अन्यत्र बहुत कम हुआ है ( श्रौत ग्रन्थों में ऋषि प्रवर के संदर्भ में कात्य उत्कील का उल्लेख आता है ) । ऋग्वेद ३.१७ व ३.१८ के ऋषि विश्वामित्र के पुत्र कत हैं । शुक्ल यजुर्वेद के यज्ञीय कर्मकाण्ड को निर्धारित करने वाले श्रौत ग्रन्थ कात्यायन श्रौत सूत्र के रचयिता कात्यायन हैं जिन्हें पुराणों में याज्ञवल्क्य व कात्यायनी के पुत्र कहा गया है । लेकिन पुराणों के दृष्टिकोण से कात्यायन का महत्त्व इसलिए है कि उन्हें दुर्गा सप्तशती से सम्बद्ध किया गया है । भविष्य पुराण में कात्यायन के सम्पर्क से राजा भीमभट मांसल भोगों का आनन्द लेते हुए भी पाप से लिप्त नहीं हुआ । कात्यायन की मूल प्रकृति क्या है, इसका एकमात्र स्रोत हमें प्रश्नोपनिषद १.३ से प्राप्त होता है । वहां कबन्धी कात्यायन पिप्पलाद ऋषि से प्रश्न करता है कि प्रजा ( प्रज्ञा? ) कैसे उत्पन्न होती है और इसके उत्तर में पिप्पलाद बताते हैं कि जो प्राण हैं, वह अग्नि या आदित्य हैं तथा जो रयि है, वह चन्द्रमा है । जो शुक्ल पक्ष है, वह प्राण हैं और जो कृष्ण पक्ष या रात्रि है, वह रयि है । शुक्ल पक्ष से देवयान मार्ग प्राप्त होता है और कृष्ण पक्ष से पितृयान । पुराणों से ऐसा संकेत मिलता है कि कात्यायन का मार्ग रयि का मार्ग है । रयि क्या है, इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि ऋग्वेदादि वैदिक संहिताओं में रयि शब्द का अति व्यापक रूप में प्रयोग किया गया है । विभिन्न देवताओं से रयि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है । वैदिक निघण्टु में रयि को धन नामों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है और इस प्रकार वैदिक ऋचाओं में रयि का अनुवाद आध्यात्मिक धन करना पडता है । लेकिन प्रश्नोपनिषद में कात्यायन के संदर्भ में रयि के उल्लेख तथा कात्यायन के पौराणिक संदर्भों से यह अनुमान लगाय जा सकता है कि पुराणों की शक्तियां या देवियां रयि हैं । यदि प्रश्नोपनिषद के अनुसार रयि पितृयान का मार्ग है तो पुराणों में कात्यायन द्वारा श्राद्ध विधि का वर्णन करने तथा लक्ष्मीनारायण संहिता के अनुसार कात्ययायन द्वारा सर्वप्रथम वास्तुपूजा के प्रवर्तन आदि के संदर्भों को उचित समझा जा सकता है । लेकिन कात्यायन के सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण संदर्भ कात्यायन द्वारा दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र के उपदेश का लगता है जिसके द्वारा मांसल भोगों का उपभोग करते रहने पर भी पाप से बचा जा सकता है । मध्यम चरित्र में देवी द्वारा महिषासुर के वध का वर्णन है । महिषासुर के संदर्भ में यह समझना होगा कि महिष का असुरत्व क्या है । महिषासुर का जन्म रम्भ असुर व महिषी से हुआ है । शतपथ ब्राह्मण १३.५.२.२ में अश्वमेध के संदर्भ में यजमान या राजा की महिषी नामक पत्नी अश्वमेध में मेध्य अश्व के शिश्न से वीर्य धारण करने का अभिनय करती है । कहा गया है (शतपथ ब्राह्मण ५.३.१.४ ) कि पृथिवी जो अदिति का, अखण्डित शक्ति का रूप है, वह महिषी है । अश्व का अर्थ अ - श्व, भविष्य से रहित, काल से रहित के रूप में किया जाता है । शिव पुराण १.१७.६५ में महिष की व्याख्या कालचक्र से बंधे हुए के रूप में तथा वृषभ की व्याख्या कालचक्र से स्वतन्त्र के रूप में की गई है । यम महिष पर विराजमान होते हैं और शिव वृषभ पर । पुराणों में वृषभ का चित्रण इस प्रकार किया गया है कि उसकी देह में सारे देवता विराजमान हैं, अथवा इस तथ्य को यों भी कह सकते हैं कि वृषभ अपनी प्राणशक्ति द्वारा सारे देवताओं का आह्वान कर सकता है । लेकिन महिष के संदर्भ में ऐसा चित्रण उपलब्ध नहीं होता । ऋग्वेद की ऋचाओं ८.६९.१५, ९.९६.६ आदि में महिष को मृग कहा गया है, अर्थात् भोगों? का अन्वेषण करने वाले प्राण । शतपथ ब्राह्मण ६.७.४.५ में महिषों को प्राण कहा गया है । ऋग्वेद में इन महिषों के ४ स्तर या धाम कहे गए हैं (ऋग्वेद ९.९६.१८ व १९ ) । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२०५ के अनुसार महिष का जो तीसरा व चौथा स्तर या धाम है, वह द्वादशाह यज्ञ में सातवें दिन से आरम्भ होने वाला छन्दोम कहलाने वाला यज्ञ है । द्वादशाह में पहले ६ दिनों में वृत्र का, हमें आवृत करने वाले असुर का वध किया जाता है । इसके पश्चात् सातवें से नौवें दिन तक छन्दोम होते हैं । यह आनन्द की, संगीत की स्थिति है जिसमें नाम, रूप का अस्तित्व रहता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में इन्द्र, अग्नि व सोम को महिष की संज्ञा दी गई है । प्रश्न यह है कि पुराणों के महिषासुर का असुरत्व क्या है ? ऋग्वेद ४.१८.११ में इन्द्र महिष का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.५४.४ में महिष के ४ असुर नाम होने का उल्लेख है । ऐसा प्रतीत होता है कि यदि अश्वमेध की महिषी अदिति न होकर दिति, खण्डित शक्ति का रूप हो तथा इस महिषी में वीर्य का आधान करने वाला भी मेध्य अश्व न हो, तो उस महिषी से महिष असुर की उत्पत्ति होगी । महिष को सर्वदा भोगों की अभिलाषा रहती है । ऋग्वेद ८.३५.७-९ की टेक है कि हे अश्विनौ, शुद्ध किए गए सोम पान के लिए ऐसे आओ जैसे महिष । ऋग्वेद ९.११३.३ में सोम महिष को पर्जन्य द्वारा वर्धित होने वाला कहा गया है । ऋग्वेद ९.८२.३ में सोम महिष के पिता के रूप में पर्जन्य का उल्लेख है । ऋग्वेद ६.१७.११ में इन्द्र द्वारा १०० महिषों को पकाने का उल्लेख है । ऋग्वेद ५.२९.८ में इन्द्र द्वारा महिषों के मा को, मांस को खाने का उल्लेख है । एक अन्य ऋचा में महिषों को पकाने का उल्लेख है । इससे स्पष्ट होता है कि महिष स्थिति को, महिष रूपी प्राणों को लगातार पकाकर शुद्ध बनाया जा सकता है । महिष के शुद्ध रूप के उदाहरण के रूप में हम केदार पर्वत पर निवास करने वाले महिष रूपी शिव का उल्लेख कर सकते हैं । महिषासुर के मर्दन में कात्यायन की भूमिका यह बताई गई है कि कात्यायन ने देवों और स्कन्द से प्राप्त तेजों को मिलाकर एक कर दिया और उस एकीकृत तेज से महिषासुर मर्दिनी देवी की उत्पत्ति हुई । इस एकीकरण की व्याख्या अदिति रूपी महिषी को उत्पन्न करने के रूप में की जा सकती है । महिषासुर के पौराणिक संदर्भों में सभी में देवी द्वारा महिषासुर के वध का कथन नहीं है । एक संदर्भ में देवी खड्ग लेकर महिषासुर के केश पकड लेती है लेकिन उसका वध नहीं करती । वह कहती है कि इतना ही पर्याप्त है । अब महिषासुर नियन्त्रण में रहेगा । वराह पुराण में महिषासुर को अज्ञान का रूप और देवी को ज्ञान रूप कहा गया है । शिव पुराण में महिष को काल चक्र का रूप कहा गया है । यम देवता महिष का नियन्त्रण करते हैं । यम को कर्मों का परिष्कार करने वाला समझा जाता है । भविष्य पुराण में भी महिषासुर की कथा का उपयोग कर्मों के फल से बचने के रूप में किया जाता है । व्यावहारिक रूप में यह महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान रूपी महिषी, अदिति, देवी को उत्पन्न करके कर्मों के फलों की अवहेलना की जा सकती है । और कात्यायन देवों के तेज का एकीकरण कैसे करता है, यह समझना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यह उल्लेखनीय है कि सप्तशती का मध्यम चरित्र यजुर्वेद से, क्रिया से सम्बन्धित है । मत्स्य पुराण में कात्यायन को शुक्ल तीर्थ का सेवन करने वाला कहा गया है । यह तथ्य इस पर प्रश्न चिह्न लगाता है कि कात्यायन केवल रयि का ही विकास करता है, प्राणों का नहीं । प्रथम लेखनः- २५.७.२००१ई.
KAATYAAYANA Kaatyaayana does not happen to be a seer in vedic texts, but he is the composer of a famous ritual or Shrout text on White Yajurveda. Puraanic texts indicate that word Kaatyaayana is connected with Kata, son of seer Vishwaamitra and seer of of Rigveda 3.17 and 3.19. In puraanic texts, there are contexts of seer Kaatyaayana, the most important of which seems to be that he gives sermons on second character of Durgaa Saptashati, the famous composition of verses which is recited by every Hindu devotee. In this second character, there is description of how a goddess was born out of brightness of gods and only she could kill the demon Mahishaasura. Kaatyaayana has been quoted as having added his own brightness to the brightness of gods and then the goddess was born. In order to understand the nature of Kaatyaayana, it is necessary to understand the nature of Mahishaasura or buffalo demon. Buffalo is the carrier of god Yama, the god of mortality while bull is the carrier of Lord Shiva. Shiva puraana clarifies the difference between the two. Mahisha or buffalo is bound with time cycle, while bull is free from it. The nature of Kaatyaayana seems to be how to avoid the fruits of action while living in this world. In mythology, he has been depicted as taking lessons from god Skanda Kartikeya on grammer. Skanda himself seems to be connected with different levels of human consciousness. In killing of Mahishaasura, brightness of gods and brightness of humans both are required.