ब्राह्मण - कर्कट कथा(पंचतन्त्र)
ब्राह्मण – कर्कट कथा( अपरीक्षितकारकम्, कथा 14)
यदा ब्रह्मदत्त ब्राह्मणः कस्यचित् कारणेन एकाकी विदेश गन्तुं इच्छति, तर्हि तस्य माता सार्थवाहरूपेण एकं कर्कटं ददाति एवं ब्राह्मणोपि श्रद्धया तं कर्कटं कर्पूरपुटिकामध्ये स्थापयित्वा गृहादागच्छति। यात्राकाले यदा सः स्वपिति, तदा कर्कटः एकं विधधर सर्पं विनाशयति। इमं लघुकथां बोधनहेतु कर्कटस्य महत्त्वबोधनं उपयोगी भविष्यति। स्कन्द ५.३.१३७ संकेतं ददाति यत् आवां देहतन्त्रे वालखिल्यादयः ये क्षुद्र प्राणाः सन्ति, तेषां गणना कर्कट प्राणानां मध्ये भवति। एते क्षुद्र प्राणाः देहमध्ये किं कुर्वन्ति। तेषां एकः कृत्यमस्ति – जरातः मुक्ति। पद्म पुराणे ६.२२२.२७ मध्ये कर्कट भिल्लः जरां हन्ति। आधुनिक विज्ञानानुसारेण अयं कथं भवति। प्रत्येक जीवित कोशिका यदा स्वविभाजनं करोति, तदा सर्वेषां नवीन कोशिकानां रूपं न पुराणकोशिका अनुरूपं भवति। कर्कट प्राणस्य कृत्यं अयं भवति यत् येषां – येषां कोशिकानां रूपं भिन्नं भवति, तान् सर्वान् कर्कटः भक्षणं करोति। यदि केनापि कारणेन कर्कट प्राणः दुर्बलं भवति, तदा कैंसर रोगं भवति। आंग्ल भाषायाम् कर्कटस्य अनुवादं कैंसर एव भवति। शास्त्रानुसारेण कृकल प्राणस्य एकं कृत्यं क्षुधा – तृष्णा जननम् अस्ति। यदा मनुष्यः निकटमृत्यु काले भवति, तदा तस्य क्षुधा तिरोहितं भवति। अयं अन्वेषणीयः तस्य कृकल प्राणानां कः स्थितिर्भवति। अयं कथ्यते यत् सुषुप्तावस्थायां, समाधि अवस्थायां कृकल प्राणः शान्तो भवति, तिरोभवति। यदि एवमस्ति, तदा पंचतन्त्रस्य कथामध्ये कथं कर्कटः विषसर्पं हन्ति। अयं संकेतः यत् कर्कट प्राणः सुषुप्त्यावस्थायामपि सक्रियः एव भवति। भविष्य पुराणे ३.४.१२.९९ उल्लेखः भवति यत् यदा शिशु गणेशस्य शिरः शनि द्वारा कर्तितं भवति, तदा गणेशस्य शिरः स्थाने हस्तिनः शिरं योजयंते, एवं हस्तिनः उपरि कर्कटस्य शिरं योजयन्ते। कर्कट जातिः शिरोविहीनः भवति। अयं कथनः अति महत्त्वपूर्णं भवति। वैदिक कर्मकाण्डे ये प्राणाः ब्रह्माण्डे क्षिप्ताः सन्ति, तेषां संज्ञा प्रवर्ग्यः भवति। प्राणानां विक्षेपकारणे यज्ञः शिरोविहीनं भवति। यज्ञस्य शिरोधारणार्थं विशेष कृत्याः संपादनीयानि सन्ति। केन्द्रीय प्राण(शिरः) एवं विकीर्ण प्राणाः (प्रवर्ग्याः) द्वयानामपि अस्तित्वं आवश्यकं भवति। कर्कट प्राणानां संदर्भे शिरोस्थापनं कथं भविष्यति, अयं महत्त्वपूर्णं प्रश्नः। पंचतन्त्रस्य कथामध्ये कर्कटस्य ग्रहणं कर्पूरपुटिकामध्ये भवति। कर्पूरः घनसत्त्वावस्था भवति। अयं संकेतः यत् कर्कट प्राणानां नियन्त्रण हेतु तेषां ग्रहणं कर्पूरावस्थायां भवितुं अर्हति। कर्पूर द्रव्यस्य दहने प्रकाशं उत्सर्जति, धूमस्य जननं भवति, किन्तु दहन पश्चात् न कोपि भस्म शेषं भवति। अश्वमेधे यदा अश्वः पूर्ण रूपेण शुद्धं भवति, तदा सः कर्पूररूपे रूपान्तरितं भवति। कथासरित्सागरे . हितोपदेशे कथ्यन्ते यत् कर्पूर द्वीपः राजहंसानां निवासस्थानं भवति। अयं हिरण्यगर्भस्य स्थानमस्ति। पुराणेषु उल्लेखमस्ति यत् कुबेरः भयावस्थायां कृकलासे प्रविशति। कुबेरः प्राणानां धनावस्था, न्यून अव्यवस्था, न्यून एण्ट्रांपी स्थितिरस्ति। अन्य पक्षे, वालखिल्यादयः प्राणाः उच्चतर अव्यवस्थायाः स्थितिरस्ति। अतः एष दर्शनः सर्वदा महत्त्वपूर्णं अस्ति यत् एते उच्चतर अव्यवस्थायाः प्राणाः केन तन्त्रेण केन प्रकारेण धारणीयाः। अस्मिन् वीणाया एकः कूर्मः आरोहणंं करोति। तथैव, कृकल प्राणात् अपि वीणानिर्माणं संभवमस्ति। तदा वीणायाः संज्ञा कर्करिका भवति। कर्कट अग्नि ३४१.१७ ( संयुत कर के १३ प्रकारों में से एक ), पद्म ६.२२२.२७ ( मर्यादा पर्वत - वासी कर्कट संज्ञक भिल्ल द्वारा जरा नामक दुष्ट पत्नी के वध का वृत्तान्त ), ब्रह्माण्ड ३.४.२१.७८ ( कर्कटक : भण्डासुर का एक पुत्र व सेनानी ), भविष्य ३.४.१२.९९ ( गज के शीर्ष का गणेश पर आरोपण हो जाने पर ब्रह्मा द्वारा गज को कर्कट के शिर से युक्त करना ), शिव ४.२०.१३ ( पुष्कसी - पति, कर्कटी - पिता, सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा कर्कट व पुष्कसी को भस्म करने का उल्लेख ), स्कन्द ५.२.२२.१ ( कर्कटेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य : कर्कट की लिङ्ग के सम्मुख मृत्यु होने पर राजा धर्ममूर्ति बनने का वृत्तान्त ), ५.३.१३७ ( कर्कटेश्वर तीर्थ का माहात्म्य : वालखिल्यों व नारायणी देवी के तप का स्थान ), भरतनाट्य ९.१३०(हस्त की कर्कट मुद्रा का लक्षण) । karkata कृकल अग्नि ८७.५(शान्ति कला/तुर्यावस्था के २ प्राणों में से एक, अलम्बुषा नाडी में स्थित कृकल/कृकर वायु की प्रकृति का कथन ), २१४.१३( कृकल वायु के भक्षण का हेतु होने का उल्लेख ), पद्म २.४१+, २.५९ ( कृकल नामक वैश्य का अपनी पतिव्रता पत्नी सुकला का परित्याग कर तीर्थयात्रा हेतु गमन, कृकल का धर्म से संवाद तथा धर्म द्वारा कृकल को सुकला के श्रेष्ठ पातिव्रत्य तथा चरित्र की महानता के समक्ष तीर्थयात्रा की व्यर्थता को निरूपित करते हुए गृह में किए गए कृत्यों से ही देवों , पितरों के संतुष्ट होने का वर्णन ) । krikala कृकलास गरुड २.४६.२१(गुरुदाराभिलाषी के कृकलास बनने का उल्लेख), भागवत १०.६४.६ ( ब्राह्मण के प्रति हुए अपराध से राजा नृग को कृकलास / गिरगिट योनि की प्राप्ति, कृष्ण के करकमलों के स्पर्श से मुक्ति का वर्णन ), विष्णुधर्मोत्तर १.२२१.१० ( मरुत्त के यज्ञ में रावण द्वारा उत्पन्न त्रास से कुबेर के कृकलास रूप धारण कर पलायन करने का उल्लेख ), स्कन्द ३.१.५२.९०(कुपात्र दान से कृकलास बनने का उल्लेख), ५.३.१५९.२१ ( गुरु - दारा से गमन की अभिलाषा करने पर कृकलास योनि प्राप्ति का उल्लेख ), ७.४.१० ( कृकलास / नृग तीर्थ के माहात्म्य के प्रसंग के अन्तर्गत कृष्ण द्वारा राजा नृग के कूप से उद्धार की कथा ), वा.रामायण ७.१८.५ ( राजा मरुत्त के यज्ञ में रावण से भयभीत होने पर कुबेर देवता के कृकलास नामक तिर्यक् योनि में प्रवेश करने का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण १.१५५.५० ( अलक्ष्मी के कर्ण की कृकलास से उपमा ), १.२२२ ( राजा नृग को द्विज - प्रदत्त शाप के कारण कृकलास योनि की प्राप्ति, श्रीकृष्ण के स्पर्श से शाप से मुक्ति की कथा ), २.१९.६० ( कृकलासी : कर्कि राशि के देवता रूप में कृकलासी का उल्लेख ), २.१२२.२( कर्कायन ऋषि का जल में कृकलास रूप में वास करने का उल्लेख ) । krikalaasa जब ब्रह्मदत्त ब्राह्मण किसी कार्यवश एकाकी विदेश जाना चाहता है तो उसकी माता सहयात्री के रूप में एक कर्कट देती है और ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक उस कर्कट को कर्पूरपुडिया में स्थापित कर घर से चल देता है। यात्राकाल में जब वह सोता है, तब कर्कट एक विषधर सर्प का विनाश कर देता है। इस लघुकथा को समझने के लिए कर्कट के महत्त्व को समझना उपयोगी होगा। स्कन्द पुराण ५.३.१३७ संकेत देता है कि हमारे देहतन्त्र में वालखिल्य आदि जो क्षुद्र प्राण हैं, उनकी गणना कर्कट प्राणों के अन्तर्गत होती है। यह क्षुद्र प्राण देह में क्या करते हैं। उनका एक कृत्य है - जरा से मुक्ति। पद्म पुराण ६.२२२.२७ में कर्कट भिल्ल जरा की हत्या करता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह किस प्रकार होता है। प्रत्येक जीवित कोशिका जब स्वविभाजन करती है, तो सभी नवीन कोशिकाओं का रूप पुरानी कोशिका के अनुरूप नहीं होता। कर्कट प्राण का कार्य यह है कि जिन – जिन कोशिकाओं का रूप भिन्न होता है, उन सबको कर्कट प्राण खा जाता है। यदि किसी कारण से कर्कट प्राण दुर्बल हो गया हो, तो कैंसर रोग हो जाता है। अंग्रेजी भाषा में कर्कट का अनुवाद कैंसर ही है। शास्त्रानुसार कृकल प्राण का एक कृत्य क्षुधा – तृष्णा जनन भी है। जब मनुष्य मृत्युकाल के निकट होता है, उसकी क्षुधा तिरोहित हो जाती है। यह अन्वेषणीय है कि उसके कृकल प्राणों की क्या स्थिति होती है। यह कहा जाताहै कि सुषुप्तावस्था, समाधि अवस्था में कृकल प्राण शान्त हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। यदि ऐसा है, तो पंचतन्त्र कथा में सुप्तावस्था में कर्कट विषैले सर्प का हनन कैसे करता है। यह संकेत देता है कि कर्कट प्राण सुषुप्ति अवस्था में भी सक्रिय ही रहता है। भविष्य पुराण ३.४.१२.९९ में उल्लेख है कि जब शिशु गणेश का शिर शनि द्वारा काट दिया गया तो गणेश के शिर के स्थान पर हस्ति का सिर जोड दिया गया, एवं हस्ति के ऊपर कर्कट का सिर जोड दिया गया। कर्कट जाति शिरोहीन ही रह गई। यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है। वैदिक कर्मकाण्ड में जो प्राण ब्रह्माण्ड में प्रकीर्ण हो जाते हैं, उनकी संज्ञा प्रवर्ग्य है। प्राणों के विक्षेप के कारण यज्ञ शिरोविहीन हो जाता है। यज्ञ के शीर्ष को जोडने के लिए विशेष कृत्य का सम्पादन करना होता है। केन्द्रीय प्राण(शिर) तथा विकीर्ण प्राण(प्रवर्ग्य) दोनों का अस्तित्व आवश्यक है। कर्कट प्राणों के संदर्भ में शिरः स्थापन कैसे होता है, यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। (यह भी कहा जा सकता है कि हमें अपने केंद्रीय प्राण द्वारा सर्वदा कर्कट प्राणों पर नियन्त्रण रखना चाहिए।) पंचतन्त्र कथा में कर्कट का ग्रहण कर्पूरपुटिका में किया जाता है। कर्पूर घनसत्त्वावस्था कही गई है। यह संकेत है कि कर्कट प्राणों के नियन्त्रण हेतु उनका ग्रहण कर्पूर अवस्था में करना चाहिए। कर्पूर द्रव्य के दहन पर प्रकाश उत्पन्न होता है, धूम का जनन होता है, किन्तु दहन के पश्चात् कोई भस्म शेष नहीं रहती। अश्वमेध में जब अश्व पूर्णरूप से शुद्ध होता है, तब वह कर्पूर रूप में रूपान्तरित हो जाता है। कथासरित्सागर, हितोपदेश कहते हैं कि कर्पूर द्वीप राजहंसों का निवासस्थान है। यह हिरण्यगर्भ का स्थान है। पुराणों में उल्लेख है कि कुबेर भयभीत होकर कृकलास में प्रवेश कर गया। कुबेर प्राणों की धनावस्था है, न्यून अव्यवस्था, न्यून एण्ट्रांपी स्थिति। दूसरी ओर, वालखिल्यादि प्राण उच्च अव्यवस्था की स्थिति हैं। अतः यह दर्शन सर्वदा मह्त्त्वपूर्ण है कि यह उच्चतर अव्यवस्था वाले प्राण किस तन्त्र के द्वारा धारणीय हैं। इस वीणा में एक कूर्म आरोहण करता है। इसी प्रकार, कृकल प्राणों द्वारा भी वीणा का निर्माण होता है, यह प्रतीत होता है। तब उस वीणा का नाम कर्करिका होता है। अतः नाग, कृकल, कूर्म, देवदत्त, धनंजय पांचो प्राणों की वीणाओं का प्रकार अलग – अलग होना चाहिए। |