In puraanic texts, there are often references and stories of a celestial tree under which one immediately achieves whatever he imagines. This can be called a unique imagination of puraanic texts because this concept does not exist in vedic texts. But, true to their purpose, puranic texts have expounded in an interesting way only whatever has been mentioned in a complex way in vedic texts. The concept behind creation with imagination seems to be that if one wants to create something by doing any kind of work for it, then there will be increase in entropy, or the degree of disorder. This is not allowed in heavenly world. So, vedic texts have devised ways through which one can create without increase in entropy. And these ways seem to be, in the language of vedic texts - Yagna. Yagna is nothing but to perform some work in a best possible manner, those manners with which we are not yet familier, the method of resonance.
Kalpa is one of those words which have been often used by vedic texts. This multiplicity of different kinds of kalpas of vedic texts has been summarized in about 34 kalpas by puranic texts. At first glance, it appears as if kalpa is measure of time in puraanic texts. But as we go deeper and take vedic texts as the base, it becomes clear that the classification of kalpas in puraanic texts is aimed at illustrationg their different properties according to vedic texts.
कल्प
टिप्पणी लोक व्यवहार में किसी विशिष्ट वस्तु के निर्माण को कल्पन कहा जाता है, जैसे चित्र का कल्पन । कल्पन में पहले किसी स्वरूप की मन से कल्पना की जाती है और फिर उसे कर्म द्वारा वास्तविक स्वरूप प्रदान किया जाता है । लेकिन पुराणों और वेदों में कल्प शब्द का क्या स्वरूप है, यह समझना होगा । धातु शास्त्र के अनुसार कल्प, क्लृप्ति आदि शब्द कृपू या क्लृप् - सामर्थ्ये से बने हैं और वेद मन्त्रों में जहां भी क्लृप्ति, कल्प आदि शब्द प्रकट हुए हैं, सायणाचार्य द्वारा उनका अर्थ समर्थ होना ही किया गया है । जैसी कल्पना मन से की जाए, उसको वास्तविक रूप देने में समर्थ होना इस धातु का अर्थ हो सकता है । लेकिन पुराण और वेद इससे भी आगे जाकर कल्पन का अर्थ स्पष्ट करते हैं । भविष्य पुराण के अनुसार जब कर्मभूमि का लय हो जाता है, जब कल्पना को बिना कर्म किए ही, केवल ज्ञान द्वारा ही मूर्त्त रूप मिल जाता है, वह कल्पन कहलाता है । इसकी पुष्टि का संकेत ऋग्वेद १०.२.३ से मिलता है जहां विद्वान् अग्नि अध्वरों व ऋतुओं का कल्पन करती है ।ऋग्वेद १०.५२.४ में विद्वान् अग्नि यज्ञ का कल्पन करती है । भविष्य पुराण इससे भी आगे जाकर कहता है कि महाकल्प में सर्वभूमि का लय हो जाता है । इसका अर्थ यह हो सकता है कि महाकल्प में कर्म के साथ - साथ ज्ञान का भी लय हो जाता होगा । कल्पन में कर्म अवांछित क्यों है, इसकी व्याख्या भौतिक विज्ञान के एण्ट्रापी के सिद्धान्त पर अन्यत्र टिप्पणियों में की जा चुकी है । संक्षेप में, कर्म से एण्ट्रापी में, संसार की अव्यवस्था में वृद्धि होती है, संसार की ऊर्जा अनुपयोगी होती जाती है, अतः कर्म अवांछित है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.११.५ के अनुसार जो ज्ञात है और जो अनाज्ञात है, उसका भी कल्पन अग्नि द्वारा संभव है ।
पुराणों में काल के अल्पतम विभाग से आरम्भ करके संवत्सर, युग, मन्वन्तर, कल्प आदि की कल्पना की गई है । एक कल्प के काल में १४ मनुओं का समय व्यतीत हो जाता है? यह विचित्र तथ्य है कि वैदिक साहित्य में कल्पन में मनुओं का नाम प्रत्यक्ष रूप से कहीं नहीं आता । शतपथ ब्राह्मण ८.१.४.८ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.५.७, तैत्तिरीय आरण्यक ४.१९.१ में अहोरात्रों, मासों, अर्धमासों,ऋतुओं तथा संवत्सर द्वारा आहवनीय अग्नि रूपी सुपर्ण का कल्पन किया गया है । लेकिन संवत्सर से आगे काल का कल्पन नहीं किया गया है । उपनिषदों में मन, प्राण और वाक् को एक साथ लिया जाता है । इनमें से वाक् के कल्पन के संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.२.२, ३.६.५.१, ३.७.४.१७ उल्लेखनीय हैं । वाक् की क्लृप्ति इसलिए आवश्यक है कि वाक् द्वारा क्षुधा आदि का ज्ञान होता है । प्राणों के कल्पन के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ८.२.३.३, ९.३.३.१२, १४.८.१४.३, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.७.४, २.३.२.२, गोपथ ब्राह्मण १.४.६, २.६.८ उल्लेखनीय हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.७.१०.१ में वसुधारा होम के संदर्भ में मन, प्राण और वाक् तीनों तथा इसके अतिरिक्त आयु, चक्षु आदि का यज्ञ के द्वारा कल्पन करने का उल्लेख है, लेकिन शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४ में मन, प्राण और वाक् में केवल प्राणों का ही उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.१.१८ में समनस अग्नियों द्वारा वसन्तऋतु के कल्पन तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.३.४ में समान समनस पितरों के कारण यज्ञ के देवों हेतु कल्पन का उल्लेख है । पुराणों में मनु अथवा मन्वन्तरों के कल्पों से सम्बन्ध के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि मन से साथ उ या ॐ जोडने से मनु शब्द बनता है । अथर्ववेद १.२४.५ में उ सु की साधना द्वारा रूप के कल्पन का उल्लेख आता है ।ऋग्वेद १०.२.३ में अध्वरों व ऋतुओं का कल्पन करने वाली अग्नि को ॐ होता कहा गया है । ॐ एक तादात्म्य की, अंग्रेजी में रेजोनेन्स की स्थिति हो सकती है ।
वसुधारा होम के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ४.७.१०.१ आदि में यज्ञ द्वारा आयु, प्राण, वाक्, मन, चक्षु, श्रोत्र आदि के कल्पन का सार्वत्रिक उल्लेख आता है । यहां यज्ञ द्वारा कल्पन के तथ्य की व्याख्या यह हो सकती है कि यज्ञ कर्म करने की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें एण्ट्रापी में वृद्धि न्यूनतम होती है अथवा बिल्कुल नहीं होती । लेकिन छन्दों व सामों, स्तोमों आदि के द्वारा स्वयं यज्ञ का कल्पन कैसे करना होगा, इस सम्बन्ध में जैमिनीय ब्राह्मण आदि में प्रचुर सामग्री उपलब्ध है ।ऋग्वेद १०.५२.४ तथा अथर्ववेद ४.२३.२, १९.५९.३ में विद्वान् अग्नि द्वारा तथा १०.१५७.२ में आदित्य व इन्द्र द्वारा यज्ञ के कल्पन का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ९.३.२.६ के अनुसार यज्ञेन कल्पताम् कहने से तात्पर्य आत्मना कल्पताम् से है ।
वायु पुराण में भवादि ३४ कल्पों के नाम दिए गए हैं । वैदिक ऋचाओं में जितने प्रकार के कल्पनों का उल्लेख मिलता है, उनमें से बहुतों का समावेश इन ३४ कल्पों के नामों में कर दिया गया है । उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १०.२.३ में तथा अन्यत्र भी अग्नि द्वारा ऋतुओं के कल्पन के उल्लेख हैं । वायु पुराण में षष्ठम् कल्प के रूप में ऋतु कल्प का तथा षोडश कल्प के रूप में षड्-ज कल्प का उल्लेख है । अथर्ववेद ९.४.१४ में ऋषभ के कल्पन का उल्लेख है जिसे वायु पुराण में लगता है कि ऋषभ स्वर वाले १५वें कल्प के रूप में स्थान दिया गया है । अथर्ववेद ८.९.१० में विराज के कल्प का उल्लेख है । वायु पुराण में १९वें कल्प के रूप में वैराज कल्प का नाम है । अथर्ववेद १३.१.४६ व ५३ में रोहित सूर्य द्वारा भूमि का वेदि के रूप में कल्पन आदि का उल्लेख है । वायु पुराण में २९वें कल्प के रूप में श्वेत लोहित, ३०वें कल्प के रूप में रक्त, ३१वें कल्प के रूप में पीत, ३२वें कल्प के रूप में कृष्ण कल्पों के उल्लेख हैं । २३वें कल्प के रूप में चिन्तक / चिति कल्प का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.४.८ में सुपर्ण रूपी आहवनीय अग्नि का चिति रूप में कल्पन किया गया है । यह विचारणीय है कि प्रथम तथा परवर्ती अन्य कल्पों को भव, भुव: आदि नाम किस प्रकार दिए गए हैं ।
अन्यत्र पुराणों में प्रथम महाकल्प के रूप में श्वेत वाराह कल्प का उल्लेख मिलता है । अथर्ववेद १३.१.४६ व ५३ में भूमि का वेदि के रूप में कल्पन का उल्लेख है । अतः यह संभव है कि श्वेत यज्ञ वाराह की कल्पना भूमि को वेदी बनाने के लिए की गई हो । लेकिन अन्य महाकल्पों के नामों के रूप में नृसिंह, राम, कृष्ण आदि की कल्पना पुराणों में कैसे की गई है, यह अन्वेषणीय है ।
भागवत पुराण में ध्रुव व भ्रमि के पुत्र कल्प के उल्लेख के संदर्भ में अथर्ववेद ६.८८.३ के ध्रुव सूक्त में संमनस दिशाओं द्वारा ध्रुव के लिए समिति के कल्पन का उल्लेख है । डा. फतहसिंह के अनुसार समिति वह है जहां सभी सभासदों के विचार एक से हो जाते हैं, जबकि सभा में विचारों में भिन्नता हो सकती है ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से(अथर्ववेद १२.१.५५, १३.२.३३, १८.४.७, तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.५.७, शतपथ ब्राह्मण ५.४.४.६ आदि) दिशाओं के कल्पन अथवा दिशाओं द्वारा कल्पन के उल्लेख आते हैं । यह आश्चर्यजनक है कि दिशाओं के कल्पन का इतना व्यापक उल्लेख होते हुए भी पौराणिक साहित्य में दिशाओं के कल्पन का प्रत्यक्ष रूप में कोई उल्लेख नहीं है । तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५ मेंऋतुओं का दिशाओं के सापेक्ष कल्पन करने का उल्लेख है और इस कारण हो सकता है कि पुराणों में दिशाओं का प्रत्यक्ष उल्लेख न करके उनके गुणों का ग्रहण किया गया हो ।
भविष्य पुराण में कल्प आख्यान के अन्तर्गत १२ मासों के १२ आदित्यों, ११ रुद्रों व ८ वसुओं का वर्णन आता है । इस संदर्भ में तैत्तिरीय आरण्यक के वर्णन से प्रतीत होता है कि ८ वसु वसन्त ऋतु से, ११ रुद्र ग्रीष्म ऋतु से तथा १२ आदित्य वर्षा ऋतु से सम्बन्धित हैं । अतः इन देवताओं के कल्पन से ऋतुओं का कल्पन संभव हो सकता है । यज्ञ में वसन्त ऋतु प्रातःसवन, ग्रीष्म माध्यन्दिन सवन और वर्षा तृतीय सवन का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं ।
अथर्ववेद ९.५.४, ९.५.१३, १०.९.४, ११.३.२१ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि कल्पन प्रक्रिया उदान प्राण से, ओदन से, घर्म से संभव हो सकती है । तैत्तिरीय आरण्यक में भी जहां ऋतुओं का दिशाओं के सापेक्ष कल्पन किया गया है, वह वर्णन महावीर या प्रवर्ग्य प्रक्रिया के लिए है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से अग्नि द्वारा कल्पन के जो निर्देश हैं, इस संदर्भ में अग्नि को भी पृथिवी की ज्योvति, पृथिवी का रस कहा जाता है । और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वसुधारा होम के संदर्भ में प्राण, अपान और व्यान का तो कल्पन यज्ञ के द्वारा करने के उल्लेख हैं, लेकिन उदान और समान प्राणों का वहां उल्लेख नहीं है । अतः ऐसा लगता है कि कल्पन की पूरी प्रक्रिया इस उदान प्राण से ही सम्बन्धित है ।
इस टिप्पणी के लेखन में उपनिषदों का उपयोग नहीं किया जा सका है ।
कल्पवृक्ष
टिप्पणी जैसा कि कल्प की टिप्पणी से स्पष्ट है, वैदिक साहित्य में कल्प वृक्ष जैसी कोई वस्तु नहीं है । जिस वस्तु का कल्पन करना हो, उसे यज्ञ का, ऋतुओं का, पृथिवी की ज्योvति अग्नि का, प्राणों का, चक्षु, श्रोत्र, आयु, मन, वाक् आदि का कल्पन करके, उनमें साम उत्पन्न करके प्राप्त किया जाता है । लेकिन शतपथ ब्राह्मण १२.१.१.१०, १३.१.४.३, १३.१.९.१०, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.३.४, ३.९.१३.३ में योगक्षेम के कल्पन का उल्लेख आता है । योग को प्रातःकाल इष्टि से और क्षेम को सायंकाल धृती से प्राप्त किया जाता है । योग आत्मा के अनुदिश और क्षेम प्रजा के अनुदिश है ।ऋग्वेद १.१७०.२ में इन्द्र को परामर्श दिया गया है कि इन्द्र मरुतों रूपी अपनी प्रजाओं से साथ साधु कल्पन करे । तैत्तिरीय संहिता ६.१.५.३ में उल्लेख है कि जैसे देवों की प्रजा के लिए कल्पन किया जाता है, वैसे ही मनुष्य की प्रजाओं के लिए । तैत्तिरीय संहिता ७.२.४.१ के अनुसार जो लोक अकलृप्त रह जाएंगे, कल्प बनने से वंचित रह जाएंगे, वही प्रजा की क्षुधा का कारण बन जाएंगे, प्रजा की क्षुधा उन्हीं लोकों में निवास करेगी ।
मार्कण्डेय पुराण में कल्पवृक्ष के अनुरूप शालाओं के निर्माण के संदर्भ में अथर्ववेद में शाला को ध्रुवा बनाने की कामना की गई है । अथर्ववेद ६.८८.३ में ध्रुव के लिए दिशाएं समिति का कल्पन करती हैं ।