ESOTERIC ASPECT OF KAAKABHUSHUNDI - Radha Gupta There is a detailed description of Kaakabhushundi in Raamacharitamaanasa of Tulasidaasa(Uttarakanda,doha 53-124). A brief description of the story of Kaakabhushundi can be found on existing websites such as Kaakabhushundi1 and the original text in Devanaagari can be found under Raamaayana. There are four narrators and listeners of the life of lord Raama in Raamacharitamaanas of Tulasidaasa. Kaakabhushundi is one story narrator out of four.. Sage Vaalmeeki also described Kaakabhushundi in Yogavaasishtha(Nirvaana prakarana, part 1, chapter 14-27) with entirely different symbols. After correlating both the stories we can study this character on following two grounds-
1. Why kaaka became the symbol of pure consciousness 2. The origin of Kaakabhushundi
Why kaaka/crow is selected as symbol of pure consciousness The question arises why kaaka became the symbol of pure consciousness ? It is said that kaaka has two eyepits but one pupil. Kaaka can move this pupil right or left according his need.’ Kaakaakshigolaka nyaaya ‘is famous on this basis. In the same manner human consciousness of lower level revolves around selfishness. When this lower consciousness reaches on higher level , it leaves selfishness and becomes selfless. This selfless focused consciousness is called ‘ekaakshi’ (one eyed) kaaka. The esoteric aspects of spirituality are explained through different symbols. Birds are one of them. For example- swan is the symbol of saints(pure hearted people). The swan is said to be a discriminator of milk and water, similarly the saints also discriminate good and bad. Garuda – the carrier of Vishnu-flies very high, so became symbol of high flying pure thoughts. In the same way kaaka became a symbol of selfless focused consciousness. Origin of Kaakabhushundi The origin of this pure selfless consciousness is described in both the books - Yogavaasishtha and Raamacharitamaanasa. Although both the stories are entirely different but their conclusion is the same. First , let us take a glance on Yogavaasishtha’s story. There was a kaaka named Chanda. He was the vehicle of mother goddess Alambusaa. Once Chanda met the seven female swans. These swans were the carriers of Braahmishakti. Chanda mated with these seven female swans. They became pregnant and gave birth to twenty one kaakas. All the kaakas were jeevanmukta/free souls. Out of twenty one, twenty lost their lives with passage of time, only one called Kaakabhushundi was left. He was not affected by time and survived even at the time of dissolution of the universe. This story shows the development of consciousness. Here three aspects are important. One- Chanda, which means fierce, the carrier of Alambusaa (lower nature/prakriti) indicates the lower consciousness. Second- this lower consciousness sometimes combines with higher prakriti (female swans). Third- combining with higher prakriti, the lower consciousness becomes the higher one and this higher consciousness produces excellency in our work. This excellency spreads in our self, mind, senses and praanas. These are 20 kaakas. When the body comes to an end , these 20 kaakas also dissolve and the one pure consciousness remains which is Kaakabhushundi. Now we take a glance at the story of Raamacharitamaanasa. Here Kaakabhushundi is telling his own origin to garuda. He says that in previous birth I was born as a shoodra/low caste and I was very talkative and egoistic. After some time I went to the holy city of Ujjaina and became a devotee of Shiva but hated Hari. My teacher tried his best to guide me but I hated my teacher also. I was born again and again and at last I was born as a Brahmin. Now all my worldly desires vanished from me and the only desire left was to see God. I wandered amongst the saints and reached in the aashram of sage Lomasha. Rishi Lomasha preached me about nirguna/intangible niraakara/formless supreme Brahma but I only wished to see tangible God. I was very stubborn and did not listen to him, so one day he cursed me to become a kaaka. Actually, this was my test conducted by my god to see how firm I was in my wish. So Lomasha called me back and recited Raamacharitamaanasa heard by him by the grace of Shiva. This story also indicates the development of consciousness. Shoodra is the symbol of lower consciousness which is bound in physical body. On the other hand, when the consciousness is above all the worldly pleasures, this is Braahmin- a higher consciousness. Lomasha means thrilling experience after experiencing god. Pure, selfless consciousness , without thrill to see god is called kaaka. Kaaka is able to understand the leelaa/manifestation of supreme god. Here three conditions are indicated to understand the leelaa of supreme god. 1- pure consciousness (kaaka) 2-thrilling (Lomasha) and 3- realization (Shiva). Some other points in the story also nourish the above meaning of kaaka. 1- kaaka is consciousness , so he does not dissolve when the universe dissolves. 2- In Yogavaasishtha, kaaka resides on kalpavriksha – the wish fulfilling tree. Kalpvriksha means-tree of determination and determination is-‘I am a pure wise everlasting blissful consciousness. 3- Garuda/hawk, a symbol of pure higher thoughts has some doubts about the supreme consciousness. So he has been sent to Kaakabhushundi –pure selfless consciousness. 4- Kaaka-the pure consciousness lives in four states- tureeya, sushupti, swapna, and jagriti. 5- In Aranyakanda (doha 1,2) of Raamacharitamaanasa one story is described of Indra’s son Jayanta. In the form of kaaka he pecked on the finger of sita. This kaaka indicates confused lower consciousness. But when this kaaka takes refuge in Rama , Rama blesses him by making him one eyed. One eye means pure focused consciousness as described above.
काकभुशुण्ड की कथा का आध्यात्मिक पक्ष - राधा गुप्ता तुलसी - विरचित रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में दोहा क्रमाङ्क ५३ से १२४ तक काकभुशुण्ड चरित विस्तार से वर्णित है । वैसे भी तुलसी ने रामकथा का वर्णन करने में वक्ता - श्रोता की जो शैली अपनाई है, उस शैली के चार वक्ताओं में से एक काकभुशुण्ड भी हैं । वाल्मीकि - विरचित योगवासिष्ठ में भी निर्वाण प्रकरण पूर्वार्ध के अध्याय १४ से २७ तक काकभुशुण्ड चरित्र तुलसी से सर्वथा भिन्न प्रतीकों के माध्यम से वर्णित है । दोनों प्रकार के वर्णनों में सामञ्जस्य स्थापित करते हुए हम काकभुशुण्ड का अध्ययन निम्न धरातलों पर कर सकते हैं - १- काक को चैतन्य के प्रतीक रूप में चुनने का कारण २- काकभुशुण्ड की उत्पत्ति काक को शुद्ध चैतन्य के प्रतीक रूप में चुनने का कारण काक शब्द शुद्ध चैतन्य को इंगित करता है । प्रश्न उठता है कि शुद्ध चैतन्य के लिए काक शब्द का प्रयोग क्यों किया गया? काक के विषय में कहा जाता है कि उसके अक्षिगोलक( आंख के गड्ढे) तो दो होते हैं, परन्तु उसमें अक्षि( पुतली ) एक ही होती है । काक आवश्यकता के अनुसार उसे एक गोलक से दूसरे गोलक में ले जा सकता है । इसी आधार पर 'काकाक्षि गोलक न्याय' प्रसिद्ध है । जीव की चेतना भी जब निम्न स्तरों पर रहती है, तब वह स्वार्थ व परमार्थ के दो गोलकों में घूमती रहती है परन्तु उच्च स्तरों पर आकर जीव चेतना स्वार्थ का सर्वथा त्याग करके केवल परमार्थ से सम्बन्धित हो जाती है । यही परमार्थ रूपी एक लक्ष्य पर लग जाना चेतना का एकाक्षि हो जाना है । आध्यात्मिक( धार्मिक ) ग्रन्थों में अध्यात्म के गूढ तथ्यों को समझाने के लिए जिन अनेक प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग किया गया है, उनमें पक्षियों को भी सम्मिलित किया गया है । उदाहरण के लिए, सत् - असत् का विवेक रखने वाले सन्त पुरुष की उपमा नीर - क्षीर विवेकी हंस से दी जाती है तथा निम्नतर - मनोमय आदि कोशों से उच्चतर - विज्ञानमय, आनन्दमय कोशों की ओर ऊंची उडान भरने की सामर्थ्य रखने वाले शुद्ध विचारों के लिए गरुड नामक पक्षी को प्रतीक रूप में चुना गया है । इसी प्रकार केवल परमार्थ रूप एकदृष्टि वाले जीव चैतन्य के लिए 'एकाक्षि काक' को प्रतीक रूप में लिया गया प्रतीत होता है । काकभुशुण्डि की उत्पत्ति चैतन्य की शुद्ध अवस्था उत्पन्न कैसे होती है - इसे भी काक की उत्पत्ति की कथा के माध्यम से प्रतीक शैली में व्यक्त किया गया है । योगवासिष्ठ तथा रामचरितमानस दोनों ग्रन्थों में काकभुशुण्ड की यह उत्पत्ति कथा यद्यपि बिल्कुल भिन्न - भिन्न प्रकार से वर्णित है, तथापि दोनों कथाएं इंगित एक ही तथ्य को करती हैं । पहले योगवासिष्ठ की कथा को लें - योगवासिष्ठ में कहा गया है कि चण्ड नामक एक काक अलम्बुसा देवी का वाहन था । एक बार चण्ड काक ने ब्राह्मी शक्ति की वाहन बनी हुई ७ हंसियों के साथ रमण किया । वे हंसियां गर्भवती हो गई तथा उनसे २१ काक उत्पन्न हुए । सभी काक जीवन्मुक्त थे । उनमें से २० काक तो धीरे - धीरे काल के गाल में समा गए परन्तु २१वां काक काल की गति को जानने वाला, काल से अप्रभावित, प्रलय काल में भी रहने वाला भुशुण्ड कहलाया । इस कहानी में चैतन्य के विकास की प्रक्रिया को दर्शाया गया है । कहानी में ३ बाते मुख्य हैं । पहली - अलम्बुसा देवी का वाहन चण्ड नामक काक निम्नतर प्रकृति( अलम्बुसा ) को वहन करने वाले निम्नतर स्तर के चैतन्य( चण्ड) को इंगित करता है । डा. फतहसिंह के अनुसार अलम्बुसा का अर्थ है - अलम् - बुसा अर्थात् वह शक्ति जिसके लिए बासी शक्तियां ही पर्याप्त हैं । दूसरी - यही निम्नतर चैतन्य( चण्ड) कभी न कभी उच्चतर प्रकृति रूपी हंसियों से संयुक्त हो जाता है । तीसरी - उच्चतर प्रकृति रूपी हंसियों से संयुक्त होने पर निम्नतर चैतन्य( चण्ड) ही उच्चतर होकर हमारे समस्त क्रिया कलापों में श्रेष्ठता उत्पन्न कर देता है । श्रेष्ठता के रूप में चैतन्य का जो फैलाव होता है, उसे ही जीवन्मुक्त अनेक काकों के रूप में व्यक्त किया गया है । इन काकों की २१ संख्या के विषय में ऐसा कहा जा सकता है कि वाक् अर्थात् प्रकृति की २१ प्रकार की अभिव्यक्तियां हैं - १- अहंकार +मन+पांच ज्ञानेन्द्रियां =७ २ - अहंकार + मन+ पांच कर्मेन्द्रियां = ७ ३- अहंकार +मन+ पांच प्राण =७ इन २१ प्रकार की अभिव्यक्तियों में जो चैतन्य क्रियाशील है - वही २१ काक हैं । कालक्रम से देहपात होने पर प्रकृति के अनुस्यूत चेतना का तो लोप हो जाता है और एकमात्र शुद्ध चैतन्य रूपी काकभुशुण्ड शेष रह जाता है । इसे अविनाशी, अविकारी कहा गया है । अब रामचरितमानस में वर्णित उत्पत्ति कथा को भी देखें । अपनी उत्पत्ति का वर्णन करते हुए काकभुशुण्ड कहते हैं कि पहले मैं कलियुग में शूद्र शरीर पाकर जन्मा । तब मैं धन के मद से मत्त, वाचाल, उग्रबुद्धि तथा हृदय में भारी दम्भ वाला था । अनन्तर उज्जयिनी में आकर मैं शिव का भक्त बन गया परन्तु श्रीहरि की मैं निन्दा करता था । अपने गुरु के प्रति भी मेरे मन में बहुत द्रोह था, यद्यपि गुरु जी मेरे प्रति अति स्नेह रखते थे । मैंने एक के बाद एक बहुत से शरीर धारण किए तथा अन्त में मैं ब्राह्मण शरीर लेकर पैदा हुआ । ब्राह्मण शरीर में मेरी समस्त जागतिक वासनाएं समाप्त हो चुकी थी तथा एकमात्र प्रभु दर्शन की लालसा लिए मैं मुनियों के आश्रमों में विचरण करता रहता था । एक बार मैं लोमश ऋषि के आश्रम में पहुंच गया । ऋषि मुझे उपयुक्त पात्र जानकर परमात्म तत्त्व का उपदेश देते थे, परन्तु मैं उसे ध्यानपूर्वक नहीं सुनता था और ईश्वर के सगुण रूप के प्रति ही हठ बनाए रखता था । मेरे हठ के कारण तथा अपने ही सगुण रूप के प्रति अति आग्रही रहने के कारण लोमश जी ने मुझे काक हो जाने का शाप दिया । लोमश ऋषि के माध्यम से प्रभु मेरी दृढता की ही परीक्षा ले रहे थे, अतः शीघ्र ही लोमश जी ने मुझे अपने पास बुलाकर राममन्त्र देकर मेरे प्रति रामचरित्र का वर्णन किया । इस कथा के माध्यम से भी चैतन्य के क्रमिक विकास का ही वर्णन किया गया है । शूद्र शरीर वास्तव में चैतन्य की निम्नतर स्थिति - स्थूल शरीर में बद्ध चेतना - को इंगित करता है । ब्राह्मण शरीर चैतन्य की उच्चतर स्थिति का सूचक है - जिसमें सभी भौतिक - अभौतिक वासनाओं का अन्त हो जाता है तथा चेतना ब्रह्म की चर्या में ही विचरण करने लगती है । लोमश ऋषि का अर्थ है - हमारे रोम रोम का प्रभु दर्शन के लिए पुलकित हो जाना । यही स्थिति चैतन्य को काक पद प्रदान करती है । काकपद या काकतन प्राप्त करने का अर्थ है - काक की भांति चैतन्य का एकदृष्टि ( परमात्म दृष्टि ) वाला हो जाना । यह काक स्थिति चैतन्य की शुद्ध अवस्था है । यही स्थिति राम चरित्र अर्थात् जगत् रूप में फैले हुए परमात्मा के लीलामय स्वरूप को समझ पाती है । परमात्मा के इस लीलामय स्वरूप को समझने के लिए वास्तव में तीन स्थितियां परस्पर संयुक्त रहती हैं । पहली स्थिति है - काकतन की प्राप्ति अर्थात् चैतन्य की शुद्ध अवस्था । दूसरी स्थिति है - लोमश ऋषि की प्राप्ति अर्थात् राम दर्शन के लिए रोम - रोम की पुलकायमान अवस्था तथा तीसरी स्थिति है - स्वयं की अनुभूति । इन तीनों अवस्थाओं को कहानी में यह कहकर इंगित किया गया है कि लोमश ऋषि ने काक के प्रति उस रामचरित्र का गान किया जिसे उन्होंने शम्भु से प्राप्त किया था । योगवासिष्ठ तथा रामचरितमानस की उपर्युक्त वर्णित उत्पत्ति कथाओं में काकभुशुण्ड शब्द का अर्थ 'शुद्ध जीव चैतन्य' मक्खन में घी की भांति समाया हुआ है । काकभुशुण्ड के उपर्युक्त अर्थ के पोषक कुछ अन्य बिन्दु कथा में आए हुए कुछ अन्य बिन्दु भी इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं - १-चैतन्य अविनाशी तथा प्रकृति विनाशशील है । काकभुशुण्ड चैतन्य तत्त्व है, इसीलिए योगवासिष्ठ तथा रामचरितमानस में कहा गया है कि प्रलय काल में भी काकभुशुण्ड का नाश नहीं होता । २- शुद्ध जीव चेतना( काक) स्वात्म स्वरूप का अनुभव कर लेती है, इसलिए उसका यह संकल्प दृढ हो जाता है कि मैं शुद्ध - बुद्ध सच्चिदानन्दघन आत्मा हूं । इस तथ्य को योगवासिष्ठ में यह कहकर व्यक्त किया गया है कि काकभुशुण्ड कल्पवृक्ष (संकल्प वृक्ष) पर निवास करते हैं । ३- तुलसी के अनुसार काकभुशुण्ड नील पर्वत के चार शिखरों पर स्थित चार वृक्षों में से पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान धारण करते हैं, पाकर वृक्ष के नीचे जपयज्ञ करते हैं, आम्र छाया के नीचे मानसिक पूजा करते हैं तथा बरगद के नीचे हरिकथा के प्रसंग को कहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यहां चैतन्य की चार अवस्थाओं - तुरीय, सुषुप्ति, स्वप्न तथा जाग्रत को इंगित किया गया है । तुरीय अवस्था में जीव - चेतना प्रकृति की त्रिगुणात्मकता से ऊपर उठकर आत्मभाव या परमात्मभाव में स्थित होती है - इसे काकभुशुण्ड रूपी चैतन्य का ध्यान धरना कहा गया है । सुषुप्ति अवस्था में जीव - चेतना अन्त: तथा बाह्य ज्ञान से शून्य रहती है, केवल प्राणों की क्रिया चलती रहती है - यही चैतन्य का जप यज्ञ है । स्वप्नावस्था में मन के भाव ही साकार रूप ग्रहण करते हैं, अतः यह चैतन्य की मानसिक पूजा है । जाग्रत अवस्था में जगत् के रूप में फैले हुए ऐश्वर्य को देखकर ईश्वर के अद्भुत कर्तृत्व का गान करता है - यही काकभुशुण्ड द्वारा हरिकथा का कथन है । ४- शुद्ध जीव चेतना( काकभुशुण्ड) ही राम अर्थात् परमात्मा के चरित्र को ठीक प्रकार जान पाती है । इसीलिए रामचरितमानस में तुलसी द्वारा गरुड को परमात्म चरित्र विषयक संशय, भ्रम, मोह आदि के निवारण हेतु काकभुशुण्ड के पास भेजा गया है । यहां यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि योगवासिष्ठकार ने सामान्य जीव चैतन्य को काक तथा शुद्ध जीव चैतन्य को काकभुशुण्ड कहा है, परन्तु तुलसी ने शुद्ध चैतन्य को काक भी कहा है और काकभुशुण्ड भी ।
In Garuda Puraana, kaaka/crow has been associated with the moolaadhaar chakra. This forms an important basis for making any assumption on kaaka. The fact is further corroborated with the dialogue between Suparna and Kaakabhushundi in Raamacharitamaanasa of Tulasidaasa. In vedic literature, sun is called a suparna/hawk, as it performs it’s journey as if flying in the sky. The above fiction can be understood on the basis of modern sciences. The revolution of earth around sun and thus creating seasons, months, fortnights etc. falls under the acts of suparna, while the formation of day and night due to revolution of earth around it’s own axis falls under the acts of kaaka. This may the situation of ego, a limited self. In the language of modern sciences, it is called spin. There is a description in the beginning of Uttarakaanda of the Raamaayana of Tulasidaasa that suspicion arose in the mind of Garuda/suparna that how a being which can be bound by by the enemies can be a god. To remove his suspicion, he is sent for talk with Kaakabhushundi who narrates the story of lord Raama to him. It is not that Tulasidaasa has himself fabricated this story. It’s old version already exists in Garg Samhitaa. Here the story goes like this: Ashvashiraa want to make penances in the hermit of Vedashiraa at which Vedashiraa objects. Ashvashiraa curses him to become a serpent. Vedashiraa also curses him opponent to become a kaaka/crow. According to Dr. Fatah Singh, in this story Vedashiraa is one who wants to progress on the basis of knowledge and Ashvashiraa is one who wants to progress through devotion. Getting curse means that devotion will be completed only when one is able to get through the level of kaaka, the moolaadhaara. And the narration of the story of Raama by Kaakabhushundi is an attempt to prove that one can get through the level of kaaka by following this story. It is famous about kaaka that it eats garbage/dirt. In the language of modern science, garbage can be understood on the basis of second law of thermodynamics. When a work is done, some part of the energy goes waste, without helping in any way in performing work. Suppose a fan is used to provide air. Then some part of the energy is consumed in heating of the fan. This waste energy is the garbage of old literature. It is desirable that the generation of this waste be lowest. The way how it can be done has been depicted through the story of Raama and Raavana. Raavana means noise. This noise can be eliminated only when Raama takes birth in the form of son of Dasharatha. Dasharatha means one who has converted his 10 senses into an efficient chariot. It is important to note that lord Raama has been stated to adore himself with crow feather. On the other hand, lord Krishna adores himself with peacock feather. This means that the progeny of Raama purifies from sins symbolically attached with a crow. It will be interesting to know what will happen with the progeny of Krishna. The reverberation of peacock on hearing a sound is famous. On spiritual level, it may mean that one has to reverberate in himself the pure sound called Shruti. The word Kaakabhushundi can be interpreted in the way that bhushundi may be taken as bhru – shundi. It is famous in mythology that an elephant sucks water with his tusk and then showers it on gods. In vedic mythology, the act of sucking of water is done by sun with it’s rays and then it is showered in the form of rain. In the present case, it seems that bhru – the center of eyebrows acts as a sun for sucking of water. Though word kaaka does not appear in vedic literature, but other words like kakuha, kakubha, kakuda etc. appear which are based on the root kaka which means pleasure. Kakuha means to kill pleasure. Kakuhas have been stated to be the horses driving the chariots of particular gods. Comments on kakuda can be seen elsewhere.
काक का पौराणिक व वैदिक दृष्टिकोण - विपिन कुमार गरुड पुराण में काक को मूलाधार चक्र से सम्बद्ध किया गया है । काक पर कोई धारणा बनाने के लिए यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । फिर रामचरितमानस आदि में गरुड/सुपर्ण व काकभुशुण्डि के संवाद से इसकी पुष्टि होती है । वैदिक साहित्य में सूर्य को सुपर्ण कहा जाता है जो आकाश में उडते हुए अपनी यात्रा करता है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर इसको इस प्रकार समझा जा सकता है कि पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करना, ऋतुओं, मासों आदि का निर्माण करना सुपर्ण के अन्तर्गत आता है जबकि अपनी धुरी पर परिक्रमा करके दिन - रात्रि का निर्माण करना काक के अन्तर्गत आता है । यह सीमित अहंकार की स्थिति हो सकती है । विज्ञान की भाषा में स्पिन या भ्रमि की । तुलसीदास - कृत रामचरितमानस में उत्तरकाण्ड के प्रारम्भ में वर्णन आता है कि गरुड को मोह उत्पन्न हुआ कि दशरथ का पुत्र राम जो शत्रुओं के पाशों में बद्ध हो जाता हो, वह कैसे ईश्वर का रूप हो सकता है । तब गरुड अपने संशय उच्छेद के लिए काकभुशुण्डि के पास जाते हैं जो उन्हें रामकथा सुनाते हैं जिसे सुनकर गरुड का संशय दूर हो जाता है । यह कहा जा सकता है कि तुलसीदास की यह कथा गर्ग संहिता में वर्णित अश्वशिरा व वेदशिरा की कथा का विस्तार है । इस कथा में अश्वशिरा वेदशिरा के आश्रम में तप करना चाहता है जिस पर वेदशिरा को आपत्ति है । इस पर अश्वशिरा वेदशिरा को कालिय नाग बनने का शाप दे देता है । वेदशिरा भी अश्वशिरा को काकभुशुण्डि बनने का शाप देता है । डा. फतहसिंह के अनुसार वेदशिरा ज्ञान मार्ग से प्रगति करने वाले साधक और अश्वशिरा भक्ति मार्ग से, भावना के मार्ग से प्रगति करने वाले साधक का प्रतीक हैं । पुराणों में शाप दान उद्देश्य रहित नहीं होता, वह आगे प्रगति के लिए होता है । अश्वशिरा को शाप मिलने का अर्थ है कि भक्ति की पूर्णता तभी होगी जब वह काक स्तर पर, मूलाधार स्तर पर अपने पापों का प्रक्षालन करेगा । और काकभुशुण्डि द्वारा रामकथा का प्रतिपादन यह सिद्ध करने का प्रयास है कि काक के स्तर पर पापों का प्रक्षालन राम कथा के द्वारा हो सकता है । काक के बारे में प्रसिद्ध है कि वह उच्छिष्ट का भक्षण करता है । इससे आगे कुछ नहीं कहा गया है कि क्या वह भक्षण करके उच्छिष्ट का किसी प्रकार से रूपान्तरण भी करता है? लोकभाषा में उच्छिष्ट कूडे को कहते हैं । विज्ञान की भाषा में उच्छिष्ट उस ऊर्जा को कहा जा सकता है जो एक तन्त्र से अभीष्ट कार्य की सिद्धि करने में व्यर्थ चली जाती है । उदाहरण के लिए, एक बिजली का पंखा हमें वायु प्रदान कर रहा है लेकिन पंखा चलने में पंखा गर्म भी हो जाता है । यह विद्युत ऊर्जा का अवांछित व्यय है और यह ऊष्मा उच्छिष्ट कहलाएगी । आवश्यकता इस बात की है कि उच्छिष्ट का जनन कम से कम हो । रामकथा का अर्थ होगा कि दक्षता में अदक्षता उत्पन्न करने वाले रावण( रावण शोर उत्पन्न करने वाले को कहते हैं । आधुनिक विज्ञान के अनुसार जहां जितना अधिक शोर उत्पन्न होता है, दक्षता उतनी ही कम हो जाती है ) का वध तभी हो सकता है जब परब्रह्म परमात्मा दशरथ या रथ में रूपान्तरित दस इन्द्रियों के पुत्र रूप में उत्पन्न हो । संवत्सर के मल मास से काक का सम्बन्ध अन्वेषणीय है । यह उल्लेखनीय है कि राम को काक पक्ष धारण करने वाला कहा गया है । दूसरी ओर कृष्ण मयूर पक्ष धारण करते हैं । रघु वंश से काक के पापों का प्रक्षालन होता है तो हरि वंश से क्या होगा, यह जानना महत्त्वपूर्ण है । मयूर का केका शब्द प्रसिद्ध है । मयूर एक ध्वनि सुनकर उसकी प्रतिध्वनि करता है । आध्यात्मिक पक्ष में इसे श्रुति का श्रवण कर स्मृति में प्रतिध्वनित करने के रूप में लिया जा सकता है । रामचरितमानस की कथा में गरुड - काकभुशुण्डि संवाद के वैदिक मूल के संदर्भ में, ऋग्वेद की प्रसिद्ध ऋचा है – दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तं अपां गर्भं दर्शतमोषधीनां । अभीपतो वृष्टिभिस्तर्पयन्तं सरस्वन्तं अवसे जोहवीमि ।। - ऋ. १.१६४.५२ इस ऋचा में सुपर्ण को बृहत् वायस कहा गया है जो ओषधियों में आपः का गर्भ बनता है?, जो वृष्टियों द्वारा तृप्त करता है आदि । यहां सुपर्ण को ही बृहत् वायस का रूप दे दिया गया है । अतः यह विचारणीय है कि रामचरितमानस की कथा में भी सुपर्ण और वायस/काक में अन्तर नहीं होना चाहिए । काक भुशुण्डि शब्द में भुशुण्डि को भ्रू - शुण्डि के रूप में समझा जा सकता है । भ्रू - शुण्डि का अर्थ होगा जिसका भ्रूमध्य हाथी की सूंड की तरह से जल के कर्षण और फिर उस जल के वर्षण का कार्य करता है । भौतिक जगत में जल के कर्षण का कार्य सूर्य अपनी किरणों के द्वारा करता है । यही उसकी शुण्ड हैं । पौराणिक प्रतिमाओं में हस्ती को अपनी सूंड द्वारा देवों का अभिषेक करते हुए दिखाया जाता है । वैदिक निघण्टु में ककुह शब्द का पाठभेद ककुहस्तिना प्राप्त होता है जो इस संदर्भ में विचारणीय है । वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप से काक शब्द प्रकट नहीं हुआ है, केवल अप्रत्यक्ष रूप से ही हुआ है । ऋग्वेद के मन्त्रों में ककुह शब्द प्रकट हुआ है । वैदिक निघण्टु में ककुह शब्द का वर्गीकरण महत् नामों के अन्तर्गत किया गया है लेकिन ऐसा क्यों किया गया है, यह स्पष्टीकरण उपलब्ध नहीं है । काक शब्द के आधार पर इसको समझा जा सकता है । काशकृत्स्न धातु पाठ में कक धातु लौल्ये अर्थ में कही गई है । इसका अर्थ हुआ कि काक शब्द किसी हर्ष विशेष को, चाहे वह किसी भी स्तर का हो, को इंगित करता है । ककुह शब्द में ह को हनन करने के अर्थ में, हर्ष का, लौल्य का हनन करने वाले के अर्थ में लिया जा सकता है । काकभुशुण्डि की कथा में वह रामकथा का श्रवण लोमश से करता है । लोमश/रोमश को भी हर्षयुक्त साधक के रूप में समझा जा सकता है । लेकिन ककुह में ह को हनन अर्थ में लेने पर वह निघण्टु के महत् अर्थ के विपरीत जाता प्रतीत होता है । इसका निदान यह है कि तैत्तिरीय संहिता ३.३.४.२ का कथन है कि यजु 'ककुहं रूपं वृषभस्य रोचते बृहद् इति' में वृष्टि ककुह का रूप है । इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणकारों ने काकभुशुण्डि शब्द द्वारा काक और ककुह दोनों शब्दों को सिद्ध किया है । यह एक प्रकार से उच्छिष्ट ऊर्जा के रूपान्तरण की क्रियाविधि है । ऋग्वेद ९.६७.८ में सोम रस, इन्दु को ककुह संज्ञा दी गई है । ऋग्वेद ८.४५.१४ में इन्द्र द्वारा ककुह स्थिति प्राप्त होने पर ही इन्दुओं द्वारा हर्ष की प्राप्ति होने का उल्लेख है । ऋग्वेद ४.४४.२ में अश्विनौ के रथ में ककुहास: अश्वों के जुडे होने का उल्लेख है । ऋग्वेद २.३४.११ में मरुतों को ककुह कहा गया है । सायण भाष्य में ककुह के अर्थ उच्छ्रित/ऊंचा उठा हुआ, महान्, श्रेष्ठ, स्तुत्य आदि लिए गए हैं । ऋग्वेद ३.५४.१४ की ऋचा उरुक्रम: ककुहो यस्य पूर्वी: इत्यादि की व्याख्या में सायणाचार्य द्वारा ककुह और ककुभ को समानार्थक लिया गया प्रतीत होता है और उसकी निरुक्ति 'कं स्कुभ्नन्ति विस्तारयन्ति इति दिशः । यत्र ककुबुच्छ्रयार्थ: । उच्छ्रिता इव हि दिशो वृक्षाग्रेषूपलभ्यमाना: तिष्ठन्ति ।' के रूप में की गई है । वैदिक मन्त्रों में दूसरा शब्द ककुभ है । वैदिक निघण्टु में ककुभ का वर्गीकरण दिक् - नामानि के अन्तर्गत किया गया है और ऋग्वेद १.३५.८/माध्यन्दिन संहिता ३४.२४ में पृथिवी की आठ ककुभों का उल्लेख है । एक अन्य ऋचा ( ऋ. ४.१९.४) में इन्द्र ओज की प्राप्ति के लिए पर्वत की ककुभों का नाश कर देता है । यह उल्लेखनीय है कि जहां तैत्तिरीय संहिता ३.३.४.२ में ककुहं रूपं वृषभस्य रोचते कहा गया है, वहीं वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता ८.४९ में ककुभं रूपं वृषभस्य रोचते कहा गया है । माध्यन्दिन संहिता २१.२१, २८.३३, २८.४४ आदि में ककुप् छन्द को इन्द्रियों का रूप कहा गया है जिसके लिए वेहद् वशा गौ वयः का कार्य करती है । वैदिक साहित्य में एक शब्द ककुद आता है जिसके लिए ककुद शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । ककुप् टिप्पणी वैदिक साहित्य में ककुप् दिशाओं को कहते हैं । ऋग्वेद ४.१९.४ में इन्द्र द्वारा पर्वतों की ककुभों को नष्ट करने का उल्लेख आता है । भाष्यों में पर्वतों की ककुभों का अर्थ पर्वतों के पक्ष व शिखर भी किया गया है जिनको इन्द्र ने काटकर पर्वतों को स्थिर किया । ककुप् छन्द का नाम भी है । उष्णिक् व ककुप् छन्दों का उल्लेख साथ - साथ आता है । उष्णिक् छन्द में भी २८ अक्षर होते हैं लेकिन उसके प्रथम २ पदों में ८ - ८ तथा तीसरे पद में १२ अक्षर होते हैं । षड्-विंश ब्राह्मण १.३.१२ में ककुप् व उष्णिक् को श्रोत्र - द्वय कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२५६ में ऐडं साम को ककुप् छन्द में तथा स्वारं साम को उष्णिक् छन्द में गाने का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.८७ तथा २.३२८ के अनुसार पृथिवी का ककुप् अग्नि, अन्तरिक्ष का वायु तथा द्यु का आदित्य है । इस कथन के अनुसार जो लोकों में श्रेष्ठ है , वह उस लोक का ककुप् है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.२४ के अनुसार प्राण ककुप् है, जबकि त्रैककुप् उदान है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१८५ में त्रैककुप् को अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम् कहा गया है । ककुद्मी टिप्पणी रैवत ककुद्मी की व्याख्या का सूत्र जैमिनीय ब्राह्मण १.१४४ से प्राप्त होता है । सोमयाग में माध्यन्दिन सवन के पश्चात् अन्त में पृष्ठ स्तोत्र होते हैं । ६ दिवसीय सोमयाग में प्रथम दिन के पृष्ठ स्तोत्र क्रमशः रथन्तर, वामदेव्य, श्यैत व नौधस साम होते हैं । दूसरे दिन रथन्तर के बदले बृहत् साम होता है, शेष ३ वही रहते हैं । इसी प्रकार तीसरे दिन वैरूप, चौथे दिन वैराज, पांचवें दिन शक्वर तथा छठे दिन रैवत साम होता है । यज्ञ की क्रियाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी नामक ५ महाभूतों तथा रथन्तर आदि ६ सामों में कोई सम्बन्ध है । बृहत् साम आकाश से, वैरूप वायु से, वैराज अग्नि से, शक्वर जल से तथा रैवत पृथिवी तत्त्वों से सम्बन्धित हो सकते हैं । अन्यत्र इन्हें ६ दिशाओं से सम्बद्ध किया गया है । डा. फतहसिंह के शब्दों में यह समाधि से व्युत्थान की क्रमिक स्थिति हो सकती है । इन सामों को पृष्ठ स्तोत्र क्यों कहा जाता है, इस सम्बन्ध में ब्राह्मण ग्रन्थों का कहना है कि जैसे हम अपने पृष्ठ भाग को , कमर को नहीं देख सकते, उसी प्रकार यह पृष्ठ अदृश्य रहते हैं । वैदिक साहित्य में इस संदर्भ में वृषभ के पृष्ठ की कल्पना की गई है जिस पर ककुद की स्थिति होती है । यज्ञ में वामदेव्य साम(कया नश्चित्र आ भुवत् इति)को ककुद् की संज्ञा दी गई है । वामदेव गर्भ में ही रहना पसंद करता है, वह गर्भ से बाहर निकलना, प्रकट होना नहीं चाहता । भौतिक जगत में अन्तरिक्ष गर्भ का स्थान माना जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१४४ में विस्तार से बताया गया है कि वामदेव की उत्पत्ति कैसे हुई । देवों ने असुरों से लडने से पूर्व अपने वाम वसुओं को एकत्रित करके रख दिया । असुरों को जीतने के पश्चात् उन्होंने अपने - अपने वाम वसुओं को प्राप्त कहना चाहा लेकिन वह सारा मिलकर एक हो चुका था । तब उससे रथन्तर, बृहत् आदि ६ सामों की सृष्टि हुई । रैवत साम को उत्पन्न करने के पश्चात् उससे आगे सृष्टि नहीं हो सकी । वह ककुद् रूप बन गया । वही वामदेव्य है । यह विशेष तथ्य है कि पुराणों में बृहत् ककुद्मी, वैरूप ककुद्मी, वैराज ककुद्मी आदि नाम नहीं हैं, केवल रैवत ककुद्मी नाम है । ऐसा हो सकता है कि रैवत साम तक आते आते ऊर्जा पूर्ण रूप से अव्यवस्थित हो जाती है(रैवत साम का विस्तार सबसे अधिक होता है) और इससे आगे सृष्टि करना, उस ऊर्जा का कार्य में उपयोग करना संभव नहीं है । तब यह रैवत ककुद्मी अपनी कन्या रेवती को संकर्षण को, शेष को, अनन्त को दे देता है । संकर्षण की स्थिति पृथिवी से भी नीचे मानी गई है । वह सबसे अधिक अव्यवस्थित स्थिति है । यह उल्लेखनीय है कि यज्ञ में रैवत साम के समय शक्वरी व रेवती ब्रह्मा से नाम प्राप्त करने की ५ बार मांग करती हैं और ब्रह्मा उन्हें ५ बार नाम देते हैं । अतः इस साम के ५ भाग हैं । नाम के दृष्टिकोण से विचार करने पर क्रमशः अस्ति(समाधि की, अस्तित्व मात्र की स्थिति), भाति, प्रिय, नाम व रूप का उल्लेख आता है। एक ओर सबसे अव्यवस्थित स्थिति रेवती है तो दूसरी ओर सबसे व्यवस्थित स्थिति ब्रह्म की मान सकते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.३५५ के अनुसार पृष्ठ पर ककुद् ब्रह्म के सदृश है । रैवत ककुद्मी की तुलना सोमयाग के तृतीय सवन में सभ - पौष्कल सामों से भी की जा सकती है जिसके लिए पुष्कल शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । सभ साम स्वारं व ककुप् प्रकार का है जबकि पौष्कल उष्णिक् प्रकार का । यह संकेत देता है कि रैवत की प्रकृति पौष्कल या पुष्कल जैसी हो सकती है जो अपने शीर्ष या ककुप् को सुरक्षित रखता है । ककुभ टिप्पणी वैदिक साहित्य में ककुप् दिशाओं को कहते हैं । ऋग्वेद ४.१९.४ में इन्द्र द्वारा पर्वतों की ककुभों को नष्ट करने का उल्लेख आता है । भाष्यों में पर्वतों की ककुभों का अर्थ पर्वतों के पक्ष व शिखर भी किया गया है जिनको इन्द्र ने काटकर पर्वतों को स्थिर किया । ककुप् छन्द का नाम भी है । उष्णिक् व ककुप् छन्दों का उल्लेख साथ - साथ आता है । उष्णिक् छन्द में भी २८ अक्षर होते हैं लेकिन उसके प्रथम २ पदों में ८ - ८ तथा तीसरे पद में १२ अक्षर होते हैं । षड्-विंश ब्राह्मण १.३.१२ में ककुप् व उष्णिक् को श्रोत्र - द्वय कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२५६ में ऐडं साम को ककुप् छन्द में तथा स्वारं साम को उष्णिक् छन्द में गाने का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.८७ तथा २.३२८ के अनुसार पृथिवी का ककुप् अग्नि, अन्तरिक्ष का वायु तथा द्यु का आदित्य है । इस कथन के अनुसार जो लोकों में श्रेष्ठ है , वह उस लोक का ककुप् है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.२४ के अनुसार प्राण ककुप् है, जबकि त्रैककुप् उदान है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१८५ में त्रैककुप् को अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम् कहा गया है । प्रथम लेखनः- ११.९.२००६ई.